Ask Questions

1.वेद के अनुसार अहिंसा की परिभाषा क्या है ?
 वेद के अनुसार अहिंसा की परिभाषा है, "मन, वाणी और शरीर से किसी भी प्राणी के प्रति वैर भाव न रखना और प्रेम पूर्वक व्यवहार करना. अर्थात किसी के साथ भी अन्याय नहीं करना, सबके साथ न्यायपूर्वक व्यवहार करना."
2.नमस्ते एवं नमस्कार में क्या अंतर है ? अधिकांश आर्यसमाजी नमस्ते का प्रयोग क्यों करते है
 
वेदों में एक दूसरे के अभिवादन के लिए 'नमस्ते' शब्द का प्रयोग किया गया है, 'नमस्कार' का नहीं. आर्य समाजी लोग वेदों को मानते हैं. इसलिए वे 'नमस्ते' शब्द का प्रयोग करते हैं. वैसे 'नमस्ते' शब्द का अर्थ है, "मैं आपका सम्मान करता हूँ." यह एक पूर्ण वाक्य है. इसमें ' करता हूँ', यह क्रियापद भी है. जबकि 'नमस्कार' शब्द अधूरा है. इसका अर्थ है. "सम्मान करने की क्रिया." इसमें क्रिया शब्द 'करता हूँ,' अनुपस्थित है. इसलिए व्याकरण की दृष्टि से भी 'नमस्ते' शब्द ही शुद्ध है, 'नमस्कार' नहीं. सबको 'नमस्ते' शब्द का प्रयोग ही करना चाहिए.
3.वैसे तो प्रात: सांय: शांति पाठ करते हैं, समस्त त्रिभूवन में शांति के लिये प्रार्थना करते हैं और दिपावली में पटाखे जलाकर ध्वनि व वायु का प्रदुषण फैलाते हैं, रोगियों व बच्चों की पीडा का कारण बनते हैं, ऐसे व्यक्ति व उनके ऐसे व्यवहार का क्या कहना???
 वास्तव में तो ऐसे लोग जो दीपावली आदि त्यौहार मनाना जानते नहीं, और पटाखे बजा बजा कर ध्वनि प्रदूषण और वायु प्रदूषण आदि उत्पन्न करते हैं, वे लोग देश के हितकारी नहीं है. ऐसे लोग तो राज्य व्यवस्था से दंड के पात्र हैं. आजकल यदि कोई न्यायकारी राजा... होता, तो उनको अवश्य दंड देता. मेरा ऐसे लोगों से विनम्र निवेदन है, "कृपया दीपावली पर पटाखे न बजाएं, देश के लिए अहितकारी कार्यों को न करें. जितना धन आप इन पटाखों में लगाकर देश की हानि करते हैं. उतना धन देश के गरीबों के लिए शिक्षा, चिकित्सा, भोजन, आवास आदि सुविधायों पर खर्च करके पुण्य के भागी बनें. और जब अनादी लोग दीपावली पर पटाखे बजा कर प्रदूषण फैलाएं, तब अपने अपने घर में हवन/यज्ञ करके प्रदूषण को दूर करने में सहयोग दें." इससे उनका और दूसरों का भी प्रदूषण से रक्षण होगा. और बहुत बड़ा पुण्य मिलेगा. ईश्वर सबको शक्ति और सुबुद्धि दे, कि सभी लोग देश के हितकारी बनें.
 
4.क्या मनुष्य शाकाहारी है या मांसाहारी क्या इसका ि ववरण हमारे ि कसी ग्रंथ में है?
वेदादि शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है, कि "मनुष्य मांसाहारी नहीं बल्कि शाकाहारी प्राणी है. मनुष्य को मांस नहीं खाना चाहिए. शाकाहारी भोजन खाना चाहिए. गां मा हिंसी:...... यजमानस्य पशून् पाहि" इत्यादि अनेक प्रमाण हैं
5.क्या होनी को कोई नहीं टाल सकता  या  नहीं ??
एक प्रश्न है, व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है या परतंत्र ? यदि आप कहें, व्यक्ति कर्म करने में परतंत्र है. तो जब व्यक्ति परतंत्र है, तो उसको दंड और इनाम नहीं दे सकते. जैसे बन्दूक परतंत्र है, तो बन्दूक को न कोई दंड मिलता ...है और न ही इनाम. जबकि इनाम और दंड तो व्यक्ति को ही भोगना पड़ता है. इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है परतंत्र नहीं. और यदि आप कहें, व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है. तो स्वतंत्र किसको कहते हैं ? जो अपनी इच्छा से कार्य करे, या दूसरे किसी के दबाव से ? यदि आप कहें, कि अपनी इच्छा से. तो इसका अर्थ हुआ कि "यदि व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है, तो वह सभी कार्य अपनी इच्छा से करेगा." जब अपनी इच्छा से सब कार्य करेगा, तो पहले से निश्चित कुछ भी नहीं हुआ. तो ऐसी स्थिति में यह कहना, कि "होनी को कोई नहीं टाल सकता." इससे बड़ी अज्ञानता और क्या होगी ! 

6.क्या आत्मा सदा अल्पज्ञ ही रहती  है??
जी हाँ. आत्मा सदा अल्पज्ञ ही रहती  है. समाधि लगाने पर भी और मोक्ष हो जाने पर भी. ईश्वर के सामान सर्वज्ञ कभी भी नहीं हो सकता. यही महर्षि दयानन्द जी आदि ऋषियों का सिद्धांत है.

7.जीव, प्रकृति एवं ईश्वर ये तीनों अनादि काल से क्यों है??

क्या आपके पास इस बात का उत्तर है, कि ५X८=४० क्यों होता है ? नहीं है न. यह सत्य है. और अंतिम सत्य है. जो अंतिम सत्य होता है, अर्थात जिस किसी वस्तु का जो भी स्वाभाविक गुण होता है, उस पर क्यों का प्रश्न करना अनुचित होता है. वह जैसा होता है, वैसा ही स्वीकार करना पड़ता है. जैसे कोई पूछे कि अग्नि गर्म क्यों होती है ? तो क्या उत्तर है, कुछ नहीं. क्योंकि गर्मी अग्नि का स्वाभाविक गुण है. अग्नि गर्म होती है, बस होती है. इसे चुपचाप स्वीकार करना ही होगा. इसी तरह से ईश्वर, जीव और प्रकृति तीन पदार्थ अनादि हैं, तो हैं. यह उनका स्वाभाविक गुण है. इसे चुपचाप स्वीकार करना ही होगा. यदि स्वीकार नहीं करेंगे, तो संसार में कुछ भी समझ में नहीं आयेगा.

8.हमारी आयु पहले से ही निश्चित है या नहीं ?
आयु निश्चित नहीं है. कोई भी व्यक्ति कभी भी कहीं भी मर सकता है. दुर्घटना ग्रस्त हो सकता है. और कुछ कर्मों से आयु को बढाया और घटाया भी जा सकता है. जैसे रात को जल्दी सोना, सुबह जल्दी उठना, व्यायाम करना, शुद्ध शाकाहारी सात्त्विक भोजन खाना, ईश्वर का ध्यान करना, यज्ञ करना, स्वाध्याय करना, सेवा परोपकार करना, आदि अच्छे काम करके आयु को बढाया जा सकता है. इसी तरह से रात को देर तक जागना, सुबह देर तक सोते रहना, व्यायाम नहीं करना, शराब पीना, गुटका मसाला अंडे मांस आदि अभक्ष्य भोजन खा खा कर, व्यभिचार आदि बुरे कर्मों को करने से आयु को घटाया भी जा सकता है.

9.जीवात्मा का स्वाभाविक ज्ञान  क्या है??

जीवात्मा का स्वाभाविक ज्ञान है
> " वह चेतन है = वह कुछ 'जानता' है. क्या जानता है ? वह इच्छा को जानता है. द्वेष को भी जानता है. वह सुख और दुःख को जानता है. वह प्रयत्न करना जानता है." इतना ज्ञान उसका स्वाभाविक है. और बाकी जो माता, पिता, गुरुजनों से, विद्वानों से और ईश्वर आदि से वह सीखता है, वह सब ज्ञान नैमित्तिक है. जीवात्मा अपने स्वाभाविक ज्ञान का उपयोग करके ही वह नैमित्तिक ज्ञान को सीख सकता है और उसका लाभ ले सकता है. यदि कोई व्यक्ति नैमित्तिक ज्ञान को प्राप्त कर रहा है, और उसका लाभ ले रहा है, तो समझ लीजिये वह स्वाभाविक ज्ञान का उपयोग कर रहा है, और उसका लाभ ले ही रहा है.




10.'भाग्य' और 'प्रारब्ध' में  क्या अंतर है???
'भाग्य' और 'प्रारब्ध' में थोडा ही अंतर है. प्रारब्ध, 'भाग्य' के एक भाग का नाम है. जैसे पुरुष, 'मनुष्य' जाति के एक भाग का नाम है. जितना अंतर 'पुरुष' और 'मनुष्य' में है, उतना ही अंतर 'प्रारब्ध' और 'भाग्य' में है. वास्तव में लोग भाग्य को जानते नहीं हैं. (प्रारब्ध तो थोडा कम प्रचलित शब्द है, इसे कुछ स्वाध्यायशील व्यक्ति ही प्रयोग करते हैं. साधारण व्यक्ति तो भाग्य शब्द ही जानते हैं. ) "जो भी कुछ दुःख या सुख मिल रहा है, लोग उसे 'भाग्य' समझते हैं." ऐसा नहीं है. भाग्य या प्रारब्ध उसका नाम है, जो सुख दुःख हमें हमारे कर्मों के फलस्वरूप मिलता है. और जो सुख दुःख बिना कर्म के भोगना पड़ता है, उसका नाम भाग्य या प्रारब्ध नहीं है, वह तो 'अन्याय' है. इस संसार में जन्म लेने पर बहुत से दुःख अन्याय से भी भोगने पड़ते हैं. इस सच्चाई को लोग नहीं जानते. और न जानने के कारण उस अन्याय के दुःख को वे अपना भाग्य या प्रारब्ध मान लेते हैं. जो कि गलत है. वास्तव में भाग्य के दो भेद हैं. एक तो है 'संचित कर्म' और दूसरा है 'प्रारब्ध कर्म.' सारा का सारा भाग्य हमारे पुरुषार्थ = कर्म से बना है. वह पुरुषार्थ हमने चाहे इस जन्म में किया हो, चाहे पिछले जन्म में किया हो. जो भी हमारा पूर्व पुरुषार्थ = कर्म है. उसका नाम भाग्य है. उस भाग्य में से कुछ कर्मों का फल मिलना शुरू हो जाता है, कुछ कर्म बचे रहते हैं. जिन कर्मों का फल मिलना शुरू हो जाता है, उसका नाम है 'प्रारब्ध.' अर्थात जिन कर्मों का फल मिलना 'प्रारंभ' हो गया. वह भाग्य का ही एक भाग है. और भाग्य का दूसरा भाग वह है, जिन कर्मों का फल मिलना 'अभी शुरू नहीं हुआ.' वे कर्म हमारे खाते में जमा हैं. उन जमा कर्मों का नाम 'संचित कर्म' है. ये दोनों =संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म मिल कर 'भाग्य' कहलाता है.

11.कर्म से ही पाप और पुण्य उत्पन्न होता है ऐसा माने पर----------------
*- कर्म से उत्पन्न होने वाले पाप और पुण्य द्रव्य है या गुण?
*- पाप और पुण्य का निमित्त और उपादान कारण क्या होगा?
१- वैदिक सिद्धांत के अनुसार वैशेषिक दर्शन के आधार पर तीन चीज़ें मानी जाती हैं. द्रव्य, गुण और कर्म. कर्म से उत्पन्न होने वाले पाप और पुण्य 'कर्म' के अंतर्गत आते हैं, न ये द्रव्य हैं और न ही कर्म.
२- निमित्त और उपादान कारण द्रव्यों का होता है, कर्मों का नहीं. जैसे मकान एक कार्य द्रव्य है. इसका निमित्त कारण मिस्त्री,मज़दूर हैं. उपादान कारण ईंट , पत्थर आदि हैं. और साधारण कारण फावड़ा, तसला आदि औज़ार हैं.
 


12.वे कौन से प्रश्‍न हैं [इस सन्दर्भ में] जिन पर विचार करने से शीघ्र वैराग्य उत्‍पन्‍न हो?
वैराग्य उत्पन्न करने के लिए आध्यात्मिक दृष्टि से ऐसा सोचना होगा, कि >

१- शरीर और संसार अनित्य है, श्री राम जी, श्री कृष्ण जी, अर्जुन, दुर्योधन, सिकंदर आदि सभी चले गए. एक दिन हम भी शरीर और संसार छोड़ कर चले जायेंगे, इसका चिंतन लम्बे समय तक लगातार करें. किसी भी व्यक्ति के साथ हमारा सम्बन्ध स्थाई नहीं है. एक न एक दिन सबके साथ हमारा सम्बन्ध टूट जायेगा, जब मृत्यु होगी, तब.

२- संसार में जो प्राकृतिक वस्तुएं हैं, वे शुद्ध भी नहीं हैं. अशुद्ध वस्तुएं हैं. उनमें अनेक प्रकार की गन्दगी, मल, दुर्गन्ध आदि दोष हैं. जो कि किसी को भी पसंद नहीं आते.

३- संसार में एक सुख मिलता है, और उसके पीछे पीछे ४ दुःख भोगने पड़ते हैं. कहीं भी, किसी भी परिस्थिति में पूर्ण=तृप्तिदायक और शुद्ध=( केवल सुख= बिना दुःख का सुख) नहीं है.

४- जड़ वस्तुएं अलग हैं, चेतन वस्तुएं अलग हैं. चेतन को चेतन में स्वाभाविक आकर्षण होता है. शरीर जड़ है, और आत्मा चेतन. परन्तु हम अविद्या के कारण जड़ शरीर को चेतन मान लेते हैं. जिसका परिणाम यह होता है, कि शरीर आदि जड़ पदार्थों में राग उत्पन्न हो जाता है. और हम संसार में फंस जाते हैं. भोगों में फंस जाते हैं.

तो हम यदि इस अविद्या को दूर करके इसके स्थान पर सच्ची विद्या का स्थापन करें, ( अनित्य को अनित्य, नित्य को नित्य; अशुद्ध को अशुद्ध, शुद्ध को शुद्ध; दुःख को दुःख, सुख को सुख; और जड़ को जड़ एवं चेतन को चेतन स्वीकार करें,) तो हमें वैराग्य उत्पन्न हो सकता है. ऐसा बार बार सोचने से धीरे धीरे वैराग्य उत्पन्न हो जायेगा.


13.ईश्वर ने हमें क्यों बनाया?
इस सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त अद्बुत नियमितता पर एक दृष्टिक्षेप ही काफ़ी है किसी महान नियंता की सत्ता को प्रमाणित करने के लिए | यह हस्ती इस परिपूर्णता से काम करती है कि वैज्ञानिक भी उसके शाश्वत नियमों को गणितीय समीकरणों में बांध पाएँ हैं | यह महान सत्ता प्रकाश वर्षों की दूरी पर स्थित दो असम्बद्ध कणों को भी इस सुनिश्चित रीति से गति प्रदान करती है कि गुरुत्वाकर्षण के सार्वभौमिक सिद्धांत का कभी भी अतिक्रमण नहीं हो सकता है | वैज्ञानिक जानते हैं कि दो दूरस्थ कण गुरुत्वाकर्षण के नियमानुसार निकट आते हैं – परन्तु वह क्या कारण है जो उन्हें पास आने और योजनाबद्ध तरीके से सम्मिलित रूप में गतिमान होने की प्रेरणा देता है – यह बताने में वैज्ञानिक भी समर्थ नहीं हैं | इस ब्रह्माण्ड को चलाने वाले ऐसे अन्य अनेक सिद्धांत हैं जिन में से कुछ के गणितीय समीकरणों को आधुनिक वैज्ञानिक बूझ पाएँ हैं, परन्तु अभी भी असंख्य रहस्य विस्तार से खोले जाने बाकी हैं |
अलग-अलग लोग इस हस्ती को अलग-अलग नामों से बुलाते हैं | वैज्ञानिकों के लिए यह ‘सृष्टि के नियम’ हैं, मुसलमान उसे ‘अल्लाह’ तथा ईसाई ‘गौड’ का नाम देते हैं | और ‘वेद’- विश्व की प्राचीनतम पुस्तक उसे अन्य अनेक नामों के साथ ही ‘ओ३म्’ या ‘ईश्वर’ कहती है |
किसी संकीर्ण मनोवृत्ति के अदूरदर्शी एवं छिद्रान्वेषी व्यक्ति को यह संपूर्ण जगत पूरी तरह निष्प्रयोजन लग सकता है, जो सिर्फ घटनाओं के आकस्मिक संयोग से उत्पन्न हुआ हो | अब यह अलग बात है कि उसका इस नतीजे पर पहुँचना ही यह प्रमाणित कर रहा है कि वह इस आकस्मिकता में भी नियमितता और उद्देश्य को खोजना चाहता है | बहरहाल, हम इस लेख में उसकी अवास्तविक सोच की चीरफाड़ नहीं करेंगे | हम यहां इस मौलिक प्रश्न पर विचार करेंगे जो कि इस विलक्षण विश्व के सौंदर्य और विचित्रताओं को देखकर अधिकतर यथार्थवादी (अज्ञेयवादी + आस्तिक) व्यक्तिओं के मन में उदित होता है – ईश्वर / गौड / अल्लाह ने हमें क्यों बनाया?
बहुत से मत-सम्प्रदाय इस मूलभूत सवाल का जवाब देने की कोशिश करते हैं और अधिकतर लोग इसी तलाश में एक सम्प्रदाय से दूसरे सम्प्रदाय की ख़ाक छानते फिरते हैं|
अवधारणा १: ईश्वर ने हमें बनाया जिससे कि हम उसे पूजें |
बहुत से धार्मिक विद्वानों का यह दावा है कि उसने हमें इसीलिए बनाया जिससे हम उसकी पूजा / इबादत कर सकें | अगर ऐसा मानें तो -
a. ईश्वर एक दम्भी, चापलूसी पसंद तानाशाह से अधिक और कुछ नहीं रह जाता |
b. यह सिद्ध करता है कि ईश्वर अस्थिर है | वह अपनी आदतें बदलता रहता है इसलिए जब वह अनादि काल से अकेला था तो अचानक उसके मन में इस सृष्टि की रचना का ख्याल आया |
मान लीजिये, अगर हम यह कहें कि, उसने किसी एक समय-बिंदु ’t1′ पर हमारी रचना का निश्चय किया | अब क्योंकि समय अनादि है और ईश्वर भी हमेशा से ही था- इसलिए यह समय ‘t1′ या अन्य कोई भी समय ‘t2′, ‘t3′ इत्यादि समय के मूल (जो की अनंत (infinite) दूरी पर है) से सम-दूरस्थ हैं | इसीलिए जब वह ‘t1′ समय पर अपनी मर्जी बदल सकता है तो कोई कारण नहीं कि वह ‘t2′, ‘t3′ या अन्य किसी भी समय पर अपनी मर्जी ना बदल सके | साथ ही, यह निश्चय भी नहीं किया जा सकता कि – उसने इस ‘t1′ समय से पहले कभी हमें (या अन्य किसी प्रजाति को) उत्पन्न और नष्ट न किया हो |
जिन सभी सम्प्रदायों का यह दावा है कि अल्लाह ने हमें इसलिए बनाया जिससे कि हम उसकी इबादत कर सकें, वह भी अल्लाह की परिपूर्णता में विश्वास रखतें हैं | यदि अल्लाह पूर्ण है तो वह सभी समय-बिन्दुओं पर अपना काम एक सी निपुणता और एक से नियमों से करेगा | परिपूर्णता से तात्पर्य है कि वह निमिषमात्र भी अपनी आदतों में बदलाव नहीं लाता | अतः यदि ईश्वर / अल्लाह / गौड ने हमें ‘t1′ समय पर बनाया है तो अपनी पूर्णता बनाये रखने के लिए उसे हमें अन्य समय-अवधि पर भी इसी तरह बनाना होगा | क्योंकि वह हमें दो बार तो बना नहीं सकता इसलिए उसको हमें पहले विनष्ट करना होगा ताकि फिर से हमें बना सके | अब अगर वह हमें इसी तरह बनाता और बिगाड़ता रहा तो वह यह कैसे सुनिश्चित कर पायेगा कि हम नष्ट होने के बाद भी उसकी इबादत करते रहेंगे | इसका मतलब तो यह है कि, या तो अल्लाह समय के साथ ही अपनी मर्जी भी बदलता रहता है या फिर उसने हमें इबादत करने के लिए बनाया ही नहीं है|
शंका: जब उसने खुद हमारा निर्माण किया है, तो वह हमें दुःख भोगने पर मजबूर क्यों करता है ?
यह सबसे ज्यादा हैरत में डालने वाला सवाल है, जिसका संतोषजनक समाधान कोई भी मत-सम्प्रदाय नहीं दे सके | यह अनीश्वरवाद (नास्तिकता) का जनक है | मुसलमानों में यह मान्यता है कि, अल्लाह के पास उसके सिंहासन के नीचे ” लौहे महफूज” नाम की एक किताब है, जिस में सभी जीवों के भविष्य के क्रिया-कलापों की जानकारी पूर्ण विस्तार से दी हुई है | पर इससे जीवों की कर्म-स्वातंत्र्य के अधिकार का हनन होता है | यदि मेरे कर्म पूर्व लिखित ही हैं, तो मुझे काफ़िर होने की सज़ा क्यों मिले ? और अल्लाह ने पहले से ही ”लौहे महफूज” में काफिरों के लिए सज़ा भी क्यों तय कर रखी है ? मुलसमान धर्मंप्रचारक इस विरोधाभास का जवाब चतुराई से देते हैं | जैसे की नव्य पैगम्बर जाकिर नाइक इसके जवाब में कहता है, ” एक कक्षा में सभी प्रकार के विद्यार्थी होते हैं | कुछ होशियार होते हैं और प्रथम क्रमांक पाते हैं और कुछ असफल हो जाते हैं | अब एक चतुर शिक्षक यह पहले से ही जान सकता है कि कौन सा विद्यार्थी किस क्रमांक को प्राप्त करेगा | इसका मतलब यह नहीं होता कि शिक्षक अपने विद्यार्थियों को निश्चित तरीके से ही कार्य करने पर बाध्य कर रहा है | इसका अर्थ सिर्फ यह है कि शिक्षक यह जानने में पूर्ण सक्षम है कि कौन क्या करेगा | और क्योंकि अल्लाह सर्वाधिक बुद्धिमान है, वह भविष्य में घटित होने वाली हर चीज़ को जानता है |”
बहुत ही स्वाभाविक लगने वाले इस जवाब में यह बड़ा छिद्र है – शिक्षक अपने विद्यार्थियों के कार्य का पूर्वानुमान सिर्फ तभी लगा सकते हैं जबकि वह उनके पूर्व और वर्त्तमान कार्यों का मूल्यांकन कर चुके हों | पर अल्लाह की बात करें तो उसने स्वयं ही तय कर रखा है कि कौन विद्यार्थी जन्मतः ही बुद्धिमान होगा और कौन मूर्ख !
हालाँकि, मोहनदास गाँधी का जन्म २ अक्तूबर १८६९ को हुआ था, अल्लाह ने उनके जन्म से लाखों वर्ष पहले ही यह तय कर दिया था कि यह बालक एक हिन्दू रहेगा परन्तु मुस्लिमों के प्रति अत्यधिक झुकाव रखते हुए उनका तुष्टिकरण करने में प्रथम क्रमांक पाएगा और फिर भी काफ़िर ही कहलाएगा और दोजख (नरक) के ही लायक समझा जाएगा, बतौर पवित्र मुस्लिम मुहम्मद अली के | अतः गाँधीजी के पास उनके लिए पूर्व निर्धारित मार्ग पर चलने के अलावा और कोई चारा ही नहीं था |
यह शिक्षक-विद्यार्थी का तर्क तभी जायज है यदि अल्लाह आत्मा का निर्माण करने के बाद उसे पूर्ण विकसित होने का मौका दे- जब तक वह अपने लिए सही निर्णय करने में सक्षम ना हो जाए; बजाय इसके की अल्लाह पहले से ही ”लौहे महफूज” में उनके कर्मों को निर्धारित कर दे | इससे तो अल्लाह अन्यायी साबित होता है|
कृपया “Helpless destiny in Islam” तथा ”God must be crazy” इन लेखों का अवलोकन करें |
अवधारणा २: उसने हमें परखने के लिए बनाया है |
हम पहले ही इस धारणा को ”God must be crazy” में अनेक उदाहरणों के द्वारा निरस्त कर चुके हैं | फिर भी यदि यह माना जाए कि वह हमारी परीक्षा ही ले रहा है, तब तो उसके पास ”लौहे महफूज” होना ही नहीं चाहिए या यूँ कहें कि तब वह पहले से ही हमारा भविष्य जान ही नहीं सकता | क्योंकि भविष्य जानता है तो परीक्षा की आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? और यदि ऐसा कहें कि वह दोनों कार्य कर रहा है तो उसका यह बर्ताव एक निरंकुश तानाशाह की तरह है जिसे तमाशे करना पसंद है |
तो आखिर उसने हमें बनाया ही क्यों ???
इस उलझाने वाले सवाल के जवाब में दी जानेवाली सभी अविश्वसनीय कैफियतों को हम निष्प्रभावी कर चुकें हैं | यदि परखने के लिए नहीं और पूजने के लिए भी नहीं, तो और क्या कारण हो सकता है हमें बनाने का ? यह हमें ख़ुशी या आनंद देने के लिए तो हो नहीं सकता क्योंकि इस दुनिया में बहुत सी निर्दयी और क्रूर घटनाओं को हम घटित होते हुए देखते हैं – यहां तक कि लोग इस बेदर्द दुनिया से तंग आकर आत्महत्या तक कर लेते हैं |
चाहे ख़ुशी देने के लिए हो या दुःख देने के लिए या फिर परीक्षा लेने के लिए हो, उसने हमें बनाया ही क्यों ? क्या वह सिर्फ अपने एकाकीपन का लुत्फ़ ही नहीं उठा सकता था ? क्या जरुरत थी कि पहले हमें बनाये और फिर हमें अपने इशारों पर नचाए | विवश होकर यह कहने के आलावा और कोई रास्ता नहीं बचता कि “अल्लाह बेहतर जानता है” या “खुदा जाने” या “ईश्वर ही जाने उसके खेल” या फिर “गोली मार भेजे में” |
बौद्ध धर्मं प्रयोगात्मक है, वह तो इस सवाल से कोई सरोकार ही नहीं रखता | वह कहता है कि इस प्रकार के प्रश्नों के बारे में सोचने से पहले हमें मन को साध कर इन्द्रिय निग्रह द्वारा अपनी प्रज्ञा का स्तर ऊँचा उठाना चाहिए | दुनिया की चकाचौंध में फंसे हुए व्यक्ति के लिए जो कि इससे परे कुछ भी देखने या समझने में असमर्थ है, यह एक बहुत ही व्यावहारिक सुझाव है | इस सबके बावजूद, हमारे अंतस में कहीं ना कहीं यह प्रश्न सुलगता रहता है - ईश्वर ने हमें बनाया क्यों ?
जब तक इस प्रश्न का संतोषप्रद जवाब नहीं मिल जाता – सभी कुछ निरुद्देश्य लगता है और कोई भी चीज़ मायने नहीं रखती |
यह सच है कि इसका सही जवाब सिर्फ ईश्वर ही जानता है परन्तु मानव जाती के प्रथम ग्रंथ – ‘वेद’ इस पेचीदा सवाल पर पर्याप्त प्रकाश डालतें हैं ताकि आगे हम इसकी गहराई में उतर सकें |
वेद स्पष्ट और निर्णायक रूप से कहतें हैं कि ईश्वर ने हमें नहीं बनाया | और क्योंकि ईश्वर ने हमें कभी बनाया ही नहीं, वह हमें नष्ट भी नहीं करता | जीवात्मा का सृजन और नाश ईश्वर के कार्यक्षेत्र में नहीं आता | अतः जिस प्रकार ईश्वर अनादि और अविनाशी है, उसी प्रकार हम भी हैं | हमारा अस्तित्व ईश्वर के साथ हमेशा से है और आगे भी निरंतर रहेगा |
प्रश्न: यदि ईश्वर ने हमें नहीं बनाया तो वह करता क्या है?
उत्तर: ईश्वर वही करता है जो वह अब कर रहा है | वह हमारा व्यवस्थापन (पालन, कर्म-फल प्रबंधन आदि) करता है |
प्रश्न: तब उसने यह विश्व और ब्रह्माण्ड क्यों बनाया ?
उत्तर: ईश्वर ने इस जगत और ब्रह्माण्ड के हेतु (मूल कारण) का निर्माण नहीं किया | इस जगत का मूल कारण ‘प्रकृति’ हमेशा से ही थी और आगे भी हमेशा रहेगी |
प्रश्न: जब ईश्वर ने इस विश्व को और हमें नहीं बनाया, तो वह करता क्या है – यह एक दुविधा है ?
उत्तर: जैसा पहले बताया जा चुका है, वह हमारा प्रबंधन करता है | विस्तृत रूप में देखा जाए तो – जिस तरह कुम्हार मिटटी और पानी से बर्तन बनता है, उसी तरह ईश्वर इस निर्जीव प्रकृति का रूपांतरण कर यह विश्व / ब्रह्माण्ड बनाता है | फिर वह इस इस ब्रह्माण्ड में जीवात्माओं का संयोजन करता है|
प्रश्न: यह सब वह क्यों करता है ?
उत्तर: यह सब वह करता है ताकि जीवात्मा कर्म करके आनंद प्राप्त कर सके | इसलिए वह जीवात्मा को ब्रह्माण्ड के साथ इस प्रकार संयुक्त करता है जिससे कर्म के सिद्धांत हर समय पूर्णतया बने रहें | इस प्रकार, जीवात्मा अपने कर्मों द्वारा आनंद को बढ़ा या घटा सकता है |
प्रश्न: हमें ख़ुशी देने के लिए उसे इतना प्रपंच करने कि क्या आवश्यकता है ? क्या वो सीधे तौर पर हमें ख़ुशी नहीं दे सकता ?
उत्तर: ईश्वर अपने गुणधर्म के विपरीत कुछ नहीं करता | जैसे, वह स्वयं को न तो कभी नष्ट कर सकता है और न ही नया ईश्वर बना सकता है | जीवात्मा के भी कुछ लक्षण हैं – वह चेतन है, सत् है परन्तु आनंद से रहित है | वह स्वयं कुछ नहीं कर सकता | ये उस मायक्रोप्रोसेसर की तरह है जो सिर्फ मदर बोर्ड और पॉवर सप्लाय से जुड़ने पर ही कार्य कर पाता है |अतः ईश्वर ने कंप्यूटर सिस्टम नुमा ब्रह्माण्ड को बनाया जिससे कि मायक्रोप्रोसेसर नुमा जीवात्मा कार्य कर पाए और अपने सामर्थ्य का उपयोग कर आनंद को प्राप्त करे |

प्रश्न: कर्म का सिद्धांत कैसे काम करता है ?
उत्तर: कृपया ‘FAQ on Theory of Karma’ का भी अवलोकन करें | मूलतः जीवात्मा के ६ गुण हैं : इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख,और ज्ञान | इन सब के मूल में जीव की इच्छा शक्ति और परम आनंद ( मोक्ष ) प्राप्त करने का उद्देश्य है | जब भी जीवात्मा अपने स्वाभाविक गुणों के अनुरूप कार्य करेगा उसके गुण अधिक मुखरित होंगे और वह अपने लक्ष्य के अधिक निकट पहुंचता जाएगा | किन्तु, यदि वह अस्वाभाविक व्यवहार करेगा तो उसके गुणों की अभिव्यक्ति कम होती जाएगी साथ ही वह लक्ष्य से भटक जाएगा | अतः अपने कार्यों के अनुसार जीवात्मा चित्त (जीवात्मा का एक लक्षण ) की विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करता है |
ईश्वर जीवात्मा के इस लक्षण के अनुसार, उसे ऐसा वातावरण प्रदान करता है | जिससे उसकी इच्छापूर्ति एवं लक्ष्य प्राप्ति में सहायता हो | अतः परमानन्द कार्यों का परिणाम है, कार्य विचारों का, विचार ज्ञान का एवं ज्ञान इच्छा शक्ति का परिणाम है | इससे विपरीत भी सही है – यदि कार्य गलत होंगे तो ज्ञान कम होता जाएगा – परिणामस्वरूप इच्छाशक्ति घट जाएगी | और जब कोई अत्यधिक बुरे कर्म करे तो ईश्वर ऐसे जीवात्माओं को अ-मानव ( अन्य विविध प्राणी ) प्रजाति में भेजता है, जहाँ वे अपनी इच्छा शक्ति का प्रभावी उपयोग न कर पाएँ | यह जीवात्मा के चित्त में जमे मैल की शुद्धि के लिए है | यह प्रक्रिया मृत्यु से बाधित नहीं होती | मृत्यु इस यात्रा में मात्र एक छोटा विराम या पड़ाव है, जहाँ आप अपने वाहन से उतरकर भोजन पानी से सज्ज हो कर नयी शुरुआत करते हैं |

प्रश्न: इसे एक ही बार में समझना काफ़ी कठिन है , कृपया संक्षेप में समझाइये -
उत्तर:
a) ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों शाश्वत सत्ताएं हैं जो हमेशा से थी और हमेशा ही रहेंगी | यह त्रैतवाद का सिद्धांत है |
b) ईश्वर कभी जीव या प्रकृति का सृजन अथवा नाश नहीं करता | वह तो सिर्फ एक उत्कृष्ट प्रबंधक की तरह आत्मा और प्रकृति का संयोजन इस तरह करता है ताकि जीव अपने प्रयत्न से कर्म – फ़ल के अनुसार मोक्ष प्राप्त कर सके |
c) हमारे साथ घटित होने वाली सारी घटनाएं दरअसल हमारे प्रयत्न के फ़लस्वरूप हैं जो हम अंतिम क्षण तक करते हैं | और हम अपने प्रारब्ध को हमारे वर्तमान और भविष्य के कर्मों द्वारा बदल सकते हैं |
d) मृत्यु कभी अंतिम विराम नहीं होती | वह तो हमारी अबाध यात्रा में एक अल्प-विराम (विश्रांति) है |
e) जब हम ईश्वर को निर्माता कहते हैं तो उसका अर्थ है कि वह जीव और प्रकृति को साथ लाकर संयोजित एवं व्यवस्थित आकार प्रदान करता है | वह जीवों की मदद की लिए ही ब्रह्माण्ड की व्यवस्था करता है | अंततः विनष्ट कर के पुनः निर्माण की नयी प्रक्रिया शुरू करता है | यह सम्पूर्ण निर्माण- पालन- विनाश की प्रक्रिया उसी तरह है जैसे रात के बाद दिन और दिन के बाद रात आती है | ऐसा कोई समय नहीं था जब यह प्रक्रिया नहीं थी या ऐसा कोई समय होगा भी नहीं जब यह प्रक्रिया न हो या बंद हो जाय | इसलिए, यही कारण है कि वह ब्रह्मा (निर्माता), विष्णु (पालनहार) और शिव (प्रलयकर्ता) कहलाता है |
f) ईश्वर का कोई गुण नहीं बदलता, अतः वह हमेशा जीव के कल्याण के लिए ही कार्य करता है |
g) जीवात्मा के पास स्वतंत्र इच्छा है, पर वह उसके ज्ञान के अनुसार है जो उसके कर्मों पर आश्रित है | यही कर्म सिद्धांत का मूलाधार है|
h) ईश्वर सदैव हमारे साथ है तथा हमेशा हमारी मदद करता है | हमें अपनी अंतरात्मा की आवाज सुननी चाहिए और हर क्षण सत्य का स्वीकार तथा असत्य का परित्याग करना चाहिए | सत्य की चाह ही जीवात्मा का गुण तथा इस जगत का प्रयोजन है | जब हम सत्य का स्वीकार करने लगते हैं तो हम तेजी से हमारे अंतिम लक्ष्य – मोक्ष की तरफ़ बढ़ते हैं |
सारांश में, ईश्वर ने हमें अभाव से कभी नहीं बनाया – उसने इस अद्भुत संसार की रचना हमारे लिए की, हमारी सहायता करने के लिए की | और हम इस प्रयोजन की पूर्ति – सत्य की खोज करके पूरी कर सकते हैं | यही वेदों का मुख्य सन्देश और यही जीवन का सार तत्व है |
प्रश्न: एक अंतिम सवाल – इस बात पर कैसे यकीन करें कि यह सत्य है और कोई नव निर्मित सिद्धांत नहीं ?
उत्तर: इस पर यकीन करने के अनेक कारण हैं, जैसे -
यहां कही गई प्रत्येक बात वेदानुकूल है | जो कि संसार की प्राचीनतम और अपरिवर्तनीय पुस्तक है | नीचे दिए गये पाठ का अवलोकन करने से आप अनेक संदर्भ विस्तार से देख सकते हैं |
यह सिद्धांत सहज बोध और जीवन के नित्य प्रति के अवलोकन के अनुसार है |
यह आखें मूंदकर किसी सिद्धांत को मानने की बात नहीं है | कर्म के सिद्धांत तो सर्वत्र क्रियान्वित होते हुए दिखायी देते हैं | दूर क्यों जाएं? आप मात्र ३० दिनों तक सकारात्मक, प्रसन्न एवं उत्साही बनकर देखिये | नकारात्मक एवं बुरे कर्मों को अपने से दूर रखिये -और फिर देखिये आप क्या अनुभव करते हैं | इस छोटे से प्रयोग से ही देखिये आप के जीवन में आनंद का स्तर कहां तक पहुँचता है | जिन्हें किसी ने नहीं देखा ऐसे चमत्कार की कहानियों या विकासवाद के सिद्धांत से तो यह अधिक विश्वसनीय है |
वेद उसका अन्धानुकरण करने के लिए कभी नहीं कहते | इस सिद्धांत के इस क्रियात्मक पक्ष को हर विवेकशील व्यक्ति स्वीकार करेगा – कि ज्ञानपूर्वक सत्य का ग्रहण करें और असत्य को त्यागें | Religion of Vedas में वर्णित अच्छे कार्यों को करें | स्मरण रखें कि वेदों का मार्ग अत्यधिक संगठित और प्रेरणादायी है | जिसमें विश्वास करने की कोई अनिवार्यता नहीं है | वेदों का अभिप्राय यह है – जैसे ही आप स्वतः सत्य को स्वीकार और असत्य को छोड़ना शुरू करते हैं चीजें स्वतः आप के सामने स्पष्ट हो जाती हैं | यदि आप इस से आश्वस्त नहीं हैं तो चाहे इसे कुछ भी कहें, पर इससे अधिक तार्किक, सहज- स्वाभाविक और प्रेरणात्मक सिद्धांत और कोई नहीं है – ” ईश्वर हमेशा से है तथा हरदम हमारी रक्षा और पालन करता है और हमारे कर्म स्वातंत्र्य का सम्मान करते हुए अपने स्वाभाव से हटे बिना, हमारे कल्याण के लिए ही कार्य करता है और हमें अवसर भी प्रदान करता है | ”
विश्वस्तरीय सर्वाधिक बिकने वाली ” The Secret ” में इस सिद्धांत का जरा सा पुट लेते हुए अनेकों की जिंदगी को बदल दिया है | इससे सम्पूर्ण सिद्धांत के सामर्थ्य और प्रभाव का अंदाजा लग जाता है | इसे हम अग्निवीर में अपनी समझ से सर्वाधिक अच्छे रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं |
नोट: इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए सत्यार्थ प्रकाश के ७,८ और ९ वें अध्याय का स्वाध्याय अवश्य करें | १२५ वर्ष पुरानी भाषा होते हुए भी इस पुस्तक में अमूल्य एवं अलभ्य सिद्धांत वर्णित हैं |
जो व्यक्ति ध्यान पूर्वक इन तत्वों को समझ सके और आत्मसात करे उसे स्वयं के उद्धार के लिए अन्य किसी की आवश्यकता नहीं है | अग्निवीर के आन्दोलन का आधार यही वे अध्याय हैं जो जीवन को बदलने वाले साबित हुए हैं | आगे बढ़ें, और स्वयं अपने आप में एक नया रूपांतरण अनुभव करें |


14.ब्रह्म क्या है? जीव क्या है? आत्मा क्या है? ब्रह्मांण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई है? 

इन सभी बिंन्दुओं पर विस्त्रित व्याख्या हमारे वेदों में भरी पडी़ है

ओ३म्
वेद

ब्रह्म क्या है? जीव क्या है? आत्मा क्या है? ब्रह्मांण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई है? इन सभी बिंन्दुओं पर विस्त्रित व्याख्या हमारे वेदों में भरी पडी़ है। सम्पूर्ण पिण्ड-ब्रह्माण्ड और परमात्मा को जानने का विज्ञान ही वेद है। वेद मानव सभ्यता, भारतीय संस्कृति के मूल श्रोत हैं। इनमें मानव-जीवन के लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति के लिये उपयोगी सभी सिद्धान्तों एवं उपदेशों का अद्भुत वर्णन है। वेद एक प्रकार से मंत्र का विज्ञान है, जिसमें विराट् विश्व ब्रह्मांड की अलौकिक शूक्ष्म एवं चेतन सत्ताओं एवं शक्तियों तक से सम्बन्ध स्थापित करने करने के गूढ़ रहस्य दिये हुये है। भौतिक विज्ञानी अभी तक इस क्षेत्र में मामुली सी जानकारी ही प्राप्त कर सके हैं।

वेद का अर्थ है ज्ञान। वेद शब्द विद सत्तायाम,विदज्ञाने,विदविचारणे एवं विद्लाभे इन चार धातुओं से उत्पन्न होता है। संक्षिप्त में इसका अर्थ है, जो त्रिकालबाधित सत्तासम्पन्न हो, परोक्ष ज्ञान का निधान हो, सर्वाधिक विचारो का भंडार हो और लोक परलोक के लाभों से परिपूर्ण हो। जो ग्रंथ इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के परिहार के उपायों का ज्ञान कराता है, वह वेद है। भारतीय मान्यता के अनुसार वेद ब्रह्मविद्या के ग्रंथभाग नही, स्वयं ब्रह्म हैं-शब्द ब्रह्म हैं। प्राचीन काल से हमारे ऋषि-महर्षि, आचार्य तथा भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले विद्वानों ने वेद को सनातन, नित्य और अपौरूषेय माना हैं। उनकी यह मान्यता रही है कि वेद का प्रादुर्भाव ईश्वरीय ज्ञान के रूप में हुआ है। इसका कारण यह भी है कि वेदों का कोई भी निरपेक्ष या प्रथम उच्चरयिता नहीं है। सभी अध्यापक अपने पूर्व-पूर्व के अध्यापकों से ही वेद का अध्ययन या उच्चारण करते रहे हैं। वेद का ईश्वरीय ज्ञान के रूप में ऋषि-महर्षियों ने अपनी अन्तर्दृष्टि से प्रत्यक्ष दर्शन किया। द्रष्टाओं का यह भी मत है कि वेद श्रेष्ठतम ज्ञान-पराचेतना के गर्भ में सदैव से स्थित रहते हैं। परिष्कृत-चेतना-सम्पन्न ऋषियों के माध्यम से वे प्रत्येक कल्प में प्रकट होते हैं। कल्पान्त में पुनः वहीं समा जाते हैं।

वेद को श्रुति, छन्दस् मन्त्र आदि अनेक नामों से भी पुकारा जाता है। विष्णु, भागवत, वायु, मत्स्य आदि पुराणों के अनुसार त्रेतायुग के अन्त तक वेद एक ही था। द्वापर के अन्त में महर्षि वेदव्यास ने वेद के चार विभाग कियेः-

१-ऋग्वेद ।

२-यजुर्वेद ।

३-सामवेद ।

४-अथर्ववेद ।

जिसमें नियताक्षर वाले मंत्रों की ऋचाएँ हैं,वह ऋग्वेद कहलाता है। जिसमें स्वरों सहित गाने में आने वाले मंत्र हैं, वह सामवेद कहलाता है। जिसमें अनितह्याक्षर वाले मंत्र हैं, वह यजुर्वेद कहलाता है। जिसमें अस्त्र-शस्त्र, भवन निर्माण आदि लौकिक विद्याओं का वर्णन करने वाले मंत्र हैं, वह अथर्ववेद कहलाता है। वेद मंत्रों के समूह को शूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्य तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है।

वेद की समस्त शिक्षाएँ सर्वभौम है। वेद मानव मात्र को हिन्दू, सिख, मुसलमान, ईसाई बौद्ध,जैन आदि कुछ भी बनने के लिये नहीं कहतें। वेद की स्पष्ट आज्ञा है-मनुर्वभ। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सृष्टि के मूल तत्व, गूढ़ रहस्य का वर्णन किया गया है। सूक्त में आध्यात्मिक धरातल पर विश्व ब्रह्मांड की एकता की भावना स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हुई है। भारतीय संस्कृति में यह धारणा निश्चित है कि विश्व-ब्रह्मांड में एक ही सत्ता विद्यमान है, जिसका नाम रूप कुछ भी नहीं है ।

ऋक् संहिता में १० मंडल, बालखिल्य सहित १०२८ सूक्त हैं। वेद मंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। कात्यायन प्रभति ऋषियों की अनुक्रमणी के अनुसार ऋचाओं की संख्या १०५८०, शब्दों की संख्या १५३५२६ तथा शौनक कृत अनुक्रमणी के अनुसार ४,३२,००० अक्षर हैं। ऋग्वेद की जिन २१ शाखाओं का वर्णन मिलता है, उनमें से चरणव्युह ग्रंथ के अनुसार पाँच ही प्रमुख हैं-१. शाकल, २. वाष्कल, ३. आश्वलायन, ४. शांखायन और माण्डूकायन । ऋग्वेद में ऋचाओं का बाहुल्य होने के कारण इसे ज्ञान का वेद कहा जाता है। ऋग्वेद में ही मृत्युनिवारक त्र्यम्बक-मंत्र या मृत्युञ्जय मन्त्र (७/५९/१२) वर्णित है,ऋग्विधान के अनुसार इस मंत्र के जप के साथ विधिवत व्रत तथा हवन करने से दीर्घ आयु प्राप्त होती है तथा मृत्यु दूर हो कर सब प्रकार का सुख प्राप्त होता है। विश्वविख्यात गायत्री मन्त्र(ऋ० ३/६२/१०) भी इसी में वर्णित है। ऋग्वेद में अनेक प्रकार के लोकोपयोगी-सूक्त, तत्त्वज्ञान-सूक्त, संस्कार-सुक्त उदाहरणतः रोग निवारक-सूक्त (ऋ०१०/१३७/१-७),श्री सूक्त या लक्ष्मी सुक्त (ऋग्वेद के परिशिष्ट सूक्त के खिलसूक्त में), तत्त्वज्ञान के नासदीय-सूक्त(ऋ० १०/१२९/१-७) तथा हिरण्यगर्भ-सूक्त (ऋ०१०/१२१/१-१०)और विवाह आदि के सूक्त (ऋ० १०/८५/१-४७) वर्णित हैं, जिनमें ज्ञान विज्ञान का चरमोत्कर्ष दिखलाई देता है।

यजुर्वेदः-ऋग्वेद के लगभग ६६३ मंत्र यथावत् यजुर्वेद में हैं। यजुर्वेद वेद का एक ऐसा प्रभाग है, जो आज भी जन-जीवन में अपना स्थान किसी न किसी रूप में बनाये हुऐ है। संस्कारों एवं यज्ञीय कर्मकाण्डों के अधिकांश मन्त्र यजुर्वेद के ही हैं। यजुर्वेदाध्यायी परम्परा में दो सम्प्रदाय-१. ब्रह्म सम्प्रदाय अथवा कृष्ण यजुर्वेद, २. आदित्य सम्प्रदाय अथवा शुक्ल यजुर्वेद ही प्रमुख हैं। वर्तमान में कृष्ण यजुर्वेद की शाखा में ४ संहिताएँ -१.तैत्तिरीय, २. मैत्रायणी, ३.कठ और ४.कपिष्ठल कठ ही उपलब्ध हैं। शुक्ल यजुर्वेद की शाखाओं में दो प्रधान संहिताएँ- १.मध्यदिन संहिता और २. काण्व संहिता ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। आजकल प्रायः उपलब्ध होने वाला यजुर्वेद मध्यदिन संहिता ही है। इसमें ४० अध्याय, १९७५ कण्डिकाएँ (एक कण्डिका कई भागों में यागादि अनुष्ठान कर्मों में प्रयुक्त होनें से कई मन्त्रों वाली होती है।) तथा ३९८८ मन्त्र हैं। विश्वविख्यात गायत्री मंत्र (३६.३)तथा महामृत्युञ्जय मन्त्र (३.६०) इसमें भी है।

सामवेदः- सामवेद संहिता में जो १८७५ मन्त्र हैं, उनमें से १५०४ मन्त्र ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं,आर्चिक और गान। पुराणों में जो विवरण मिलता है उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने की जानकारी मिलती है। वर्तमान में प्रपंच ह्रदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गृहसूत्र को देखने पर १३ शाखाओं का पता चलता है। इन तेरह में से तीन आचार्यों की शाखाएँ मिलती हैं- (१) कौमुथीय, (२)राणायनीय और (३) जैमिनीय। सामवेद का महत्व इसी से पता चलता है कि गीता में कहा गया है कि -वेदानां सामवेदोऽस्मि।(गीता-अ० १०, श्लोक २२)। महाभारत में गीता के अतिरिक्त अनुशासन पर्व में भी सामवेद की महत्ता को दर्शाया गया है-सामवेदश्च वेदानां यजुषां शतरुद्रीयम्। (म०भा०,अ० १४ श्लोक ३२३)। सामवेद में ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि वैदिक ऋषियों को एसे वैज्ञानिक सत्यों का ज्ञान था जिनकी जानकारी आधुनिक वैज्ञानिकों को सहस्त्राब्दियों बाद प्राप्त हो सकी है। उदाहरणतः- इन्द्र ने पृथ्वी को घुमाते हुए रखा है।(सामवेद,ऐन्द्र काण्ड,मंत्र १२१), चन्द्र के मंडल में सूर्य की किरणे विलीन हो कर उसे प्रकाशित करती हैं। (सामवेद, ऐन्द्र काण्ड,मंत्र १४७)। साम मन्त्र क्रमांक २७ का भाषार्थ है- यह अग्नि द्यूलोक से पृथ्वी तक संव्याप्त जीवों तक का पालन कर्ता है। यह जल को रूप एवं गति देने में समर्थ है। अग्नि पुराण के अनुसार सामवेद के विभिन्न मंत्रों के विधिवत जप आदि से रोग व्याधियों से मुक्त हुआ जा सकता है एवं बचा जा सकता है, तथा कामनाओं की सिद्धि हो सकती है। सामवेद ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की त्रिवेणी है। ऋषियों ने विशिष्ट मंत्रों का संकलन करके गायन की पद्धति विकसित की। अधुनिक विद्वान् भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि समस्त स्वर, ताल, लय, छंद,गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग नृत्य मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकले हैं।

अथर्ववेदः- अथर्ववेद संहिता के बारे में कहा गया है कि जिस राजा के रज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान् शान्तिस्थापन के कर्म में निरत रहता है, वह राष्ट्र उपद्रवरहित होकर निरन्तर उन्नति करता जाता हैः-

यस्य राज्ञो जनपदे अथर्वा शान्तिपारगः।

निवसत्यपि तद्राराष्ट्रं वर्धतेनिरुपद्रवम् ।। (अथर्व०-१/३२/३)।

भूगोल, खगोल, वनस्पति विद्या, असंख्य जड़ी-बूटियाँ,आयुर्वेद, गंभीर से गंभीर रोगों का निदान और उनकी चिकित्सा,अर्थशास्त्र के मौलिक सिद्धान्त, राजनीति के गुह्य तत्त्व, राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्रभाषा की महिमा, शल्यचिकित्सा, कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोगों का विवेचन, मृत्यु को दूर करने के उपाय,प्रजनन-विज्ञान अदि सैकड़ों लोकोपकारक विषयों का निरूपण अथर्ववेद में है। आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद का महत्व अत्यन्त सराहनीय है। अथर्ववेद में शान्ति-पुष्टि तथा अभिचारिक दोनों तरह के अनुष्ठन वर्णित हैं। अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं। चरणव्युह ग्रंथ के अनुसार अथर्व संहिता की नौ शाखाएँ- १.पैपल,२. दान्त, ३. प्रदान्त, ४. स्नात, ५. सौल, ६. ब्रह्मदाबल, ७.शौनक, ८. देवदर्शत और ९. चरणविद्य बतलाई गई हैं। वर्तमान में केवल दो- १.पिप्पलाद संहिता तथा २. शौनक संहिता ही उपलब्ध है। जिसमें से पिप्लाद संहिता ही उपलब्ध हो पाती है। वैदिकविद्वानों के अनुसार ७५९ सूक्त ही प्राप्त होते हैं। सामान्यतः अथर्ववेद में ६००० मन्त्र होने का मिलता है परन्तु किसी-किसी में ५९८७ या ५९७७ मन्त्र ही मिलते हैं।

वेदाङ्गः (वेदार्थ ज्ञान में सहायक शास्त्र)

वेद समस्त ज्ञानराशि के अक्षय भंडार है, तथा प्राचीन भारतीय संस्कृति,सभ्यता एवं धर्म के आधारभूत स्तम्भ हैं। वेद धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चार पुरुषार्थों के प्रतिपादक हैं। वेद भी अपने अङ्गों के कारण ही ख्यातिप्राप्त हैं, अतः वेदाङ्गों का अत्याधिक महत्व है। यहां पर अङ्ग का अर्थ है उपकार करनेवाला अर्थात वास्तविक अर्थ का दिग्दर्शन करानेवाला। वेदाङ्ग छः प्रकार के हैः-

(१) शिक्षा,

(२) कल्प,

(३) व्याकरण,

(४) निरुक्त,

(५) छन्द और

(६) ज्योतिष ।

(१)- शिक्षाः- स्वर एवं वर्ण आदि के उच्चारण-प्रकार की जहाँ शिक्षा दी जाती हो,उसे शिक्षा कहाजाता है। इसका मुख्य उद्येश्य वेदमन्त्रों के अविकल यथास्थिति विशुद्ध उच्चारण किये जाने का है। शिक्षा का उद्भव और विकास वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और उनके द्वारा उनकी रक्षा के उदेश्य से हुआ है।

(२)-कल्पः- कल्प वेद-प्रतिपादित कर्मों का भलीभाँति विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। इसमें यज्ञ सम्बन्धी नियम दिये गये हैं।

(३)-व्याकरणः-वेद-शास्त्रों का प्रयोजन जानने तथा शब्दों का यथार्थ ज्ञान हो सके अतः इसका अध्ययन आवश्यक होता है। इस सम्बन्ध में पाणिनीय व्याकरण ही वेदाङ्ग का प्रतिनिधित्व करता है। व्याकरण वेदों का मुख भी कहा जाता है।

(४)-निरुक्तः-इसे वेद पुरुष का कान कहा गया है। निःशेषरूप से जो कथित हो, वह निरुक्त है।इसे वेद की आत्मा भी कहा गया है।

(५)-छन्दः-इसे वेद पुरुष का पैर कहा गया है।ये छन्द वेदों के आवरण है। छन्द नियताक्षर वाले होते हैं। इसका उदेश्य वैदिक मन्त्रों के समुचित पाठ की सुरक्षा भी है।

(६)-ज्योतिषः-यह वेद पूरुष का नेत्र माना जाता है। वेद यज्ञकर्म में प्रवृत होते हैं और यज्ञ काल के आश्रित होते है तथा जयोतिष शास्त्र से काल का ज्ञान होता है। अनेक वेदिक पहेलियों का भी ज्ञान बिना ज्योतिष के नहीं हो सकता।

ऋषिदेव आर्य
मैसूर
कर्नाटक

सत्यमेव जयते!

15.आर्यसमाज का क्या  मतलब होता है??
आर्यसमाज का मतलब होता है श्रेष्ठो का समूह |



16.वेदों के अनुसार आत्मा क्या है और परमात्मा का कैसा स्वरुप है??

वेदों के अनुसार दो प्रकार की वस्तुएं होती हैं, एक जड़ और दूसरी चेतन. प्रकृति=संसार, तो जड़ वस्तु है. परन्तु आत्मा और परमात्मा दोनों चेतन वस्तुएं हैं. जड़ वस्तु में इच्छा, ज्ञान, प्रयत्न = स्वयं क्रिया करना आदि गुण नहीं होते. और चेतन वस्तु में ये गुण होते हैं. इस प्रकार से संसार के रेलगाड़ी, मोटर कार आदि जड़ पदार्थ स्वयं क्रिया नहीं करते, इनमें कोई इच्छा नहीं होती और ज्ञान भी नहीं होता. परन्तु आत्मा और परमात्मा दोनों चेतन हैं, इनमें इच्छा भी होती है, ये स्वयं प्रयत्न = क्रियाएँ करते हैं और इनमें ज्ञान भी होता है. ये दोनों चेतन होते हुए भी अलग अलग पदार्थ हैं. इन दोनों में बहुत अंतर है. जैसे कि > आत्मा अल्पज्ञ, एकदेशी=छोटा सा, अल्पशक्तिमान, भ्रान्ति-संशय आदि से युक्त हो जाता है. कभी अच्छे कर्म करता है, और कभी बुरे कर्म करता है. परन्तु परमात्मा सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, भ्रान्ति-संशय आदि से सर्वथा रहित, सारी सृष्टि को बनाने वाला, सबका पालन करने वाला और सब आत्माओं के कर्मों का ठीक ठीक फल देने वाला है. परमात्मा कभी भी बुरे कर्म नहीं करता, कभी भी किसी पर भी अन्याय नहीं करता.

17. जीव आत्मा अनादी काल से है ,तो हमारा कोई कारण नहीं??
जी हाँ. आत्मा का कोई भी उत्पत्ति का कारण नहीं है., ईश्वर का भी कोई कारण नहीं है.
 

18.परमात्मा हमारे कड़ कड़ में कैसे व्याप्त है??
परमात्मा कण कण में ऐसे ही व्याप्त है जैसे दूध में घी व्याप्त है. जैसे रसगुल्लों में रस.
हमारे में जो energy है वह ईश्वर नहीं है, वह तो आत्मा ही है. और ईश्वर हमसे बिलकुल अलग वस्तु है. जैसे Proton से Electron बिलकुल अलग वस्तु है. परमात्मा और आत्मा का सम्बन्ध वही है, जो राजा और प्रजा का है. परमात्मा हमारा राजा है, और हम उसकी प्रजा हैं.

19.श्री क्रष्ण जी ने कहा है आत्मा परमात्मा का अंश है न पैदा होती है न मरती है न आग जला सकती है न जल गीला कर सकता है उतम काम करने वाले मोक्ष प्राप्त करते है अर्थात आत्मा परमात्मा से मिल जाती है नही तो जीवन मरण में लगी रहती है.
क्या ये मानना सही है ???

यह लोगों की भ्रान्ति है, ऐसा श्री कृष्ण जी ने कभी भी, कहीं भी नहीं कहा, कि "{आत्मा परमात्मा का अंश है." वे वेद के विद्वान् थे. और वेदों में ऐसा कहीं नहीं लिखा. बाद में कुछ गलत लोगों ने गीता आदि ग्रंथों में ऐसी वेद विरुद्ध बातें मिला दीं. वास्तव में सत्य तो यह है, कि "आत्मा और परमात्मा दोनों अलग अलग सत्ताएं हैं. दोनों और तीसरी प्रकृति, ये तीनों चीज़ें अनादि हैं. कभी भी उत्पन्न नहीं हुई और न ही कभी नष्ट होंगी." आत्मा का मोक्ष होने का अर्थ इतना ही है, कि "वह ३१ नील, १० ख़राब और ४० अरब वर्ष के लिए जन्म मरण से छूट जाता है, और उसे इतने लम्बे समय तक एक भी दुःख नहीं भोगना पड़ता. साथ ही साथ इतने समय तक ईश्वर के उत्तम आनन्द को भोगता है. इसी का नाम मोक्ष है. और यह समय पूरा होने के बाद फिर संसार में लौट कर जन्म लेता है. फिर दोबारा यदि मेहनत करे, तो दोबारा मोक्ष में जा सकता है." ऐसा वेदों के आधार पर ऋषियों ने लिखा है.

0 comments:

Post a Comment

More

Whats Hot