Ayurveda |Arya samaj | jhansi

















Ayurveda (Sanskrit: आयुर्वेद; Āyurveda, "the complete knowledge for long life" or ayurvedic medicine is a system of traditional medicine native to India and a form of alternative medicine.In Sanskrit, words āyus, meaning "longevity", and veda, meaning "related to knowledge" or "science".The earliest literature on Indian medical practice appeared during the Vedic period in India, i.e., in the mid-second millennium BCE. The Suśruta Saṃhitā and the Caraka Saṃhitā are great encyclopedias of medicine compiled from various sources from the mid-first millennium BCE to about 500 CE. They are among the foundational works of Ayurveda. Over the following centuries, ayurvedic practitioners developed a number of medicinal preparations and surgical procedures for the treatment of various ailments .

AYURVEDA ARYA SAMAJ 
शारीरिक श्रम के अभाव, मानसिक तनाव, नकारात्मक चिन्तन, असंतुलित जीवन शैली, विरुद्ध आहार व प्रकृति के बिगड़ते संतुलन के कारण विश्व में कैंसर, ह्रदयरोग, मधुमेह, उच्च रक्तचाप व मोटापा आदि रोगों का आतंक सा मचा हुआ है। प्रकृति हमारी माँ, जननी है। हमारी समस्त विकृतियों की समाधान हमारे ही आस-पास की प्रकृति में विद्यमान है, परन्तु सम्यक ज्ञान के अभाव में हम अपने आस-पास विद्यमान इन आयुर्वेद की जीवन दायिनी जड़ी-बूटियों से पूरा लाभ नहीं उठा पाते। श्रद्धेय आचार्य श्री बालकृष्ण जी ने वर्षों तक कठोर तप, साधना व संघर्ष करके हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों एवं जंगलो में भ्रमण करते हुए जड़ी बूटियों के दुर्लभ चित्रों का संकलन तथा अनेक प्रयोगों का प्रामाणिक वर्णन किया है। शोध एवं अनुभवों पर आधारित इस पुस्तक में वर्णित जड़ी-बूटियों के ज्ञान व प्रयोग से मानव मात्र लाभान्वित थे तथा करोड़ों वर्ष पुरानी आयुर्वेद की विशुद्ध परम्परा का सार्थक प्रचार-प्रसार हो इन्हीं मंगल कामनाओं के साथ आयुर्वेद के महान् मनीषी आचार्य श्री बालकृष्ण जी को वैदिक परम्पराओं की प्रशस्थ सेवाओं के लिए कोटिशः साधुवाद




भारत में औषधीय पौधों की जानकारी वैदिक काल से ही परम्परागत अक्षुण्य चली आई है। अथर्ववेद मुख्य रूप से आयुर्वेद का सबसे प्राचीन उद्गम स्त्रोत है। भारत में ऋषि-मुनि अधिकतर जंगलों में स्थापित आश्रमों व गुरुकुलों में ही निवास करते थे और वहाँ रहकर जड़ी-बूटियों का अनुसंधान व उपयोग निरन्तर करते रहते थे। इसमें इनके सहभागी होते थे पशु चराने वाले ग्वाले। ये जगह-जगह से ताजी वनौषधियों को एकत्र करते थे और इनमें निर्मित औषधियों से जन-जन की चिकित्सा की जाती थी। इनका प्रभाव भी चमत्कारिक होता था क्योंकि इनकी शुद्धता, ताजगी एवम् सही पहचान से ही इसे ग्रहण किया जा सकता है। परिणामस्वरूप जनमानस पर इसका इतना गहरा प्रभाव हुआ कि कालान्तर में आयुर्वेद का विकास व परिवर्धन करने वाले मनीषी जैसे धन्वंतरि, चरक, सुश्रुत आदि अनेकों महापुरुषों के अथक प्रयास से विश्व की प्रथम चिकित्सा पद्धति प्रचलन में आई एवं शीघ्र ही प्रगति शिखर पर पहुँच गई। उस समय अन्य कोई भी चिकित्सा पद्धति इसकी प्रतिस्पर्धा में नहीं होने का अनुमान सुगमता से हो सकता है। शल्य चिकित्सक सुश्रुत अथवा अन्य कई ऐसे उल्लेख वेदों में मिलते हैं जिससे ज्ञात होता है कृतिम अंग व्यवस्था भी उस समय प्रचलित थी। भारत से यह चिकित्सा पद्धति पश्चिम में यवन देशों चीन, तिब्बत, श्रीलंका बर्मा (म्यांमार) आदि देशों से अपनायी गयी तथा काल व परिस्थिति के अनुसार इसमें परिवर्तन हुये और आगे भी प्रगति होकर नयी चिकित्सा पद्धतियों का प्रचार एवं प्रसार हुआ।

भारत में आयुर्वेदिक चिकित्सा का जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि यवन व अंग्रेज शासन काल में भी लोग इसमें विश्वास खो नहीं सके जबकि शासन की ओर से इस पद्धति को नकारात्मक दृष्टि से ही संघर्षरत रहना पड़ा। भारत के सुदूरवर्ती ग्रामीण अंचल में तो लोग केवल जड़ी-बूटियों पर ही मुख्यतः आश्रित रहते रहे। उन्हें यूनानी व एलोपैथिक चिकित्सा पद्धतियों का लाभ प्राप्त होना सम्भव नहीं हो सका क्योंकि ये ग्रामीण अंचल में कम ही प्रसारित हो पाये। आज भी भारत के ग्रामीण जन मानस पटल पर इन जड़ी-बूटियों में ही दृढ़ विश्वास आदिवासी क्षेत्रों में अभी भी पाया जाता है लेकिन इसे सुरक्षित करने के उपाय अभी भी संतोषजनक नहीं हैं। परन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा है कि साधारण जनता आज भी ऐलोपैथिक चिकित्सा से पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। किसी बीमारी की चिकित्सा के लिये जो दवाइयां खाई जाती हैं उसमें आंशिक लाभ तो हो जाता है किन्तु एक अन्य बीमारी का उदय हो जाता है। जड़ी-बूटियों से इस प्रकार के दुष्परिणाम कभी ही प्रकट नहीं होते हैं, इसके अतिरिक्त दवाइयों व चिकित्सा के खर्च का बोझ भी बढ़ता जा रहा है। साधारण बीमारियों के इलाज में भी खर्चा बढ़ रहा है जबकि जड़ी-बूटी चिकित्सा में बहुत कम व्यय में चिकित्सा हो सकती हैं मुख्यतः साधारण रोगों जैसे सर्दी-जुकाम, खांसी, पेट रोग, सिर दर्द, चर्म रोग आदि में आस-पास होने वाले पेड़-पौधों व जड़ियों से अति शीघ्र लाभ हो जाता है और खर्च भी कम होता है। ऐसे परिस्थितियों में जड़ी-बूटी की जानकारी का महत्व अधिक हो जाता है इसके अतिरिक्त लोग दवाइयों में धोखाधड़ी, चिकित्सकों के व्यवहार, अनावश्यक परीक्षणों व इनके दुष्परिणामों से खिन्न होते जा रहे हैं।
‘आयुर्वेद जड़ी-बूटी रहस्य’ में आम पाये जाने वाले पौधों की चिकित्सा-सम्बन्धी जानकारी सरल व सुगम ढंग से प्रस्तुत की गई है इसके उपयोग के सरल तरीके भी साथ में दिये गये हैं। जिन्हें रोगानुसार किसी योग्य चिकित्सक की सलाह से उपयोग करके सद्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

‘आयुर्वेद जड़ी-बूटी रहस्य’ में विभिन्न भाषाओं के नाम के साथ-साथ वानस्पतिक विवरण, रंगदार चित्रों रासायनिक विश्लेषण व आयुर्वेदिक गुणधर्म व सरल घरेलू उपयोग वर्णित हैं। इस तरह की अनेकों पुस्तकों में विशेष त्रुटि यह लक्षित है कि इनकी पहचान में बहुत कठिनाई होती है और यदि कोई वनौषधि किसी विशेष क्षेत्र में ही पाई जाती है तो इसे ग्रहण करने का एक मात्र उपाय जड़ी-बूटी व्यापारी ही है जो इसका औषधिय अंग बेचता है। अतः स्थिति में औषधीय अंग का चित्र लाभदायक हो सकता है इसलिये वास्तविक वनस्पति के चित्र के साथ औषधीय अंग व प्रयोज्य अंग का भी चित्र पुस्तक में दे दिया गया है। औषधि की मात्रा कितनी हो जहां तक सम्भव हुआ दी गई है जहां न हो चिकित्सक की सलाह ले लें। कई औषधीय पौधों में भेद पाये जाते हैं ऐसी स्थिति में अन्य प्रजातियों के चित्र भी दिये गये हैं।
इस पुस्तक की संरचना का संकल्प तो लगभग विगत 6 वर्षों से पूर्व लिया जा चुका था, अति व्यस्तता व पुस्तक को प्रामाणित व सुन्दर बनाने की इच्छा के कारण से लेखा कार्य में विलम्ब तो हुआ परन्तु जो सुन्दरता की कल्पना मन में थी वह निश्चित रूप से अभी अपूर्ण हैं इस पुस्तक के सृजन में जहाँ प्राचीन ऋषियों के ग्रन्थों का आश्रय लिया गया है, वहाँ अर्वाचीन लेखकों का भी भरपूर सहयोग लिया गया है, मैं सभी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
परमात्मा की कृपा से जो आध्यात्म पथ का आलम्ब लिया, तो प.पू. स्वामी रामदेव सदृश ज्येष्ठ भ्राता का सान्निध्य स्नेह व आशीर्वाद अहंर्निश प्राप्त है, यदि जीवन में किंचित मात्र भी शुभ का अनुष्ठान हो पाया तो उस प्रभु का तथा उन ऋषि महर्षियों का आज के युग में योग ऋषि स्वामी रामदेवजी महाराज के आर्शीवाद व कृपा का प्रतिफल का ही परिणाम है अतः मैं सभी के प्रति मात्र कृतज्ञता के पुष्प ही अर्पण कर सकता हूँ।

संग्रहित लेखन सामग्री के सुव्यवस्थित करने में माता पुष्पा जी का भरपूर सहयोग मिला उन्होंने अपने पारिवारिक दायित्व निर्वहन के साथ इस कार्य का भी पारिवारिक दायित्व से भी कहीं बढ़कर निर्वहन किया, उनका मैं हृदय से धन्यवाद करता हूँ। आनुवांशिक संस्थान, शिमला के पूर्व निदेशक डॉ.बी.डी. शर्मा जी ने पुस्तक के प्रूफ संशोधन व औषधियों के नामो की प्रामाणिकता के लिए पूर्ण निष्ठा से सहयोग दिया। डॉ.बी.डी. शर्मा जी, स्वामी मुक्तानन्द जी द्वारा जड़ी-बूटी अन्वेषण व अनुसंधान में हर पल जो सहयोग व साथ दिया उस कार्य के लिये इनके प्रति आभार व्यक्त करता हूँ।
आशा है यह पुस्तक जनसाधारण की आयुर्वेद की ओर चेतना जागरण में सहायक होगी तथा इससे जड़ी-बूटियों की जानकारी में वृद्धि होगी एवं इनके सरल उपयोग के लिये रूचि में निरंतर उन्नति होगी। यह स्वाभाविक है कि इसमें कई त्रुटियाँ अनुभवी विद्वतगणों को दृष्टिगोचर हों तो इनसे अवगत कराने का कष्ट करें, आभारी होंगे तथा भावी संस्करणों में संशोधन का प्रयास करेंगे।

आचार्य बालकृष्ण


आक के पौधे, या वृक्ष शुष्क, ऊपर और ऊँची भूमि में प्रायः सर्वत्र देखने को मिलते हैं। इन वनस्पति के विषय में साधारण समाज में यह भ्रान्ति फैली हुई है कि आक का पौधा विषैला होता है यह मनुष्य को मार डालता है। इसमें किंचित सत्य जरूर है, आयुर्वेद संहिताओं में भी इसकी गणना उपविषों में की गई है, यदि इसका सेवन अधिक मात्रा में कर लिया जाये तो, उल्दी दस्त होकर मनुष्य यमराज के घर जा सकता है, इसके विपरीत यदि आक का सेवन उचित मात्रा में, योग्य तरीके से, चतुर वैद्य की निगरानी में किया जाये तो अनेक रोगों में इससे बड़ा उपकार होता है। उसका हर अंग दवा है, हर भाग उपयोगी है यह सूर्य के समान तीक्ष्ण तेजस्वी और पारे के समान उत्तम तथा दिव्य रसायन धर्मा हैं। कहीं-कहीं इसे वानस्पतिक पारद भी कहा गया है। इसकी तीन जातियाँ पाई जाती है-जो निम्न प्रकार है:-
1. रक्तार्क :- Calotropis gigantean बाहर से श्वेत रंग के छोटे कटोरीनुमा और भीतर लाल और बैंगनी रंग की चित्ती वाले होते हैं। इसमें दूध कम होता है।
2. श्वेतार्क :- इसका फूल लाल आक से कुछ बड़ा-हल्की पीली आमलिये श्वेत करबीर पुष्प सदृश होता है। इसकी केशर भी बिल्कुल सफेद होती है। इसे मंदार भी कहते हैं। यह प्रायः मन्दिरों में लगाया जाता है। इसमें दूध अधिक होता है।
3. राजार्क :- इसमें एक ही टहनी होती है, जिस पर केवल चार पत्ते लगते है, इसके फूल चांदी के रंग जैसे होते हैं, यह बहुत दुर्लभ जाति है।
इसके अतिरिक्त आक की एक और जाति पाई जाती है। जिसमें पिस्तई रंग के फूल लगते हैं।

बाह्यस्वरूप

आक के बहुवर्षीय व बहुशाखीय गुल्म 4-12 फुट ऊँचे कांडत्वक बहुत कोमल व घूसर होती है। इस पौधे के सभी अंग एक सफेद रूई की तरह धुने हुए सफ़ेद रोमों में आच्छादित रहते है। पत्र-आकृत या वृन्त बहुत ही छोटा होता है, 4-6 इंच लम्बे 1-3 इंच चौड़े आयताकार मांसल व हृदयकर होते है पुष्प सुगन्धित गुच्छों में सफेद या लाल बैंगनी रंग के, पुंकेसर पांच और पुष्प दंत भी पाँच ही होते हैं। फल 2-3 इंच लम्बे 1 से 2 इंच तक चौड़े टेढ़े मेढे गोल या अंडाकार, बीच में कुछ मुड़े हुये होने के कारण तोते की चोंच जैसी लगते हैं इसलिए इन्हें शुकफल भी कहते हैं। फल के भीतर गूदे ही बजाय छोटे-2 भूरे रंग के बीज भरे होते हैं। जिन पर रूई के मुलायम रेशे कूंची की तरह चिपके रहते हैं, फल जब फटते है, तब बीज हवा में उड़कर गोल हो जाते हैं और सब जगह फैल जाते हैं।
आक का सम्पूर्ण पौधा एक प्रकार के दुग्धमय एवं चरपरे रस से परिपूर्ण होता है। इसके किसी भी भाग को तोड़ने से चीकर जैसा, सफेद रसमय दुग्ध निकलता है।

रासायनिक संघठन

आक के सर्वाग में प्रायः एक प्रकार का कडुवा और चरपरा पीला राल जैसा पदार्थ पाया जाता है, और यही इसका प्रभावशाली अंश है। इसके सिवाय जड़ की छाल में मंडारएल्बन और भड़ार फ्युएबिल नामक दो वस्तुएँ और पाई जाती है।
मंड़ारएल्बन आक का एक रवेदार एवं प्रभावात्मक सार है, इसे भंदारिन भी कहते है। यह सार ईथर और मद्यसार में घुलता है, शीतल जल तथा जैतुन के तैल में यह अघुलनशील है। इसमें एक विचित्रता है-यह गरमी में जम जाता है और शीत में खुले रखने पर पिघल उठता है। ये दोनों तत्व इसके दूध या रस में भी अधिक परिमाण में पाये जाते है। नवीन आक की अपेक्षा पुराने आक की जड़ अधिक वीर्यवान होती है।

गुण धर्म

1. दोनों प्रकार के आक दस्तावर है, वात कुष्ठ, कडूं विष, व्रण, प्लीहा, गुल्म, बवासीर, कफ उदर रोग और मल कृमि को नष्ट करने वाले है।1
2. सफेद आक का फूल वीर्यवर्धक, हल्का दीपन, पाचन अरूचि, कफ, बवासीर, खांसी तथा श्वास का नाशक है। 2
3. लाल आक का फूल-मधुर कडुवा ग्राही, कुष्ठ कृमि कफ बवासीर विष, रक्तपित्त, गुल्म तथा सूजन को नष्ट करने वाला है।3
4. आक का दूध :-कड़वा, गर्म, चिकना, खारा, हल्का, कोढ एवं गुल्म तथा उदर रोग नाशक है। विरेचन कराने में यह अति उत्तम है।
5. मूलत्वक :- हृदयोतेजक, रक्त शोधक और शोथहर है। इससे हृदय की गति एवं संकोच शक्ति बढ़ती है, तथा रक्त भार भी बढ़ता है। यह ज्वरध्न और विषमज्वर प्रतिबन्धक है।
6. पत्र:-दोनों प्रकार के आक के पत्ते वामक, रेचक भ्रमकारक तथा कास श्वास, कर्णशूल, शोथ, उरुस्तम्भ, पामा कुष्ठ आदि नाशक है।

औषधीय प्रयोग

मुँह की झाई धब्बे आदि:- हल्दी के 3 ग्राम चूर्ण को आक के दूग्ध 5-7 बूंद व गुलाब जल में घोटकर आंखों को बचाकर झाई युक्त स्थान पर लगायें, इससे लाभ होता है। कोमल प्रकृति वालों को आक की दूध की जगह आक का रस प्रयोग करना चाहिए।
सिर की खुजली:- इसे सिर पर लगाने से क्लेद, दाह वेदना एवं कँडूयुक्त अरुषिका में लाभ होता है।7
कर्णरोग:- तेल और लवण से युक्त आक के पत्तों को वैद्य बांये हाथ में लेकर दाहिने हाथ से एक लोहे की कडछी को गरम कर उसमें डाल दें। फिर इस तरह जो अर्क पत्रों का रस निकले उसे कान में डालने से कान के समस्त रोग दूर होते है। कान में मवाद आना, सॉय-सॉय की आवाज होना आदि में इससे सद्यःलाभ होता है।4

कर्णशूल

1. आक के भली प्रकार पीले पड़े पत्तों को थोड़ा सा घी चुपड़कर आग पर रख दें, जब वे झुलसने लगें चपपट निकाल कर निचोड़ लें, इस रस को थोड़ी गरम अवस्था में ही कान में डालने से तीव्र तथा बहुविधि वेदनायुक्त कर्णशूल शीघ्र नष्ट हो जाता है।
2. आक के पीले पके बिना छेद वाले पत्तों पर घी लगाकर अग्नि में तपाकर उसका रस कान में दो-दो बूंद डालने से लाभ होता है।

आक और नेत्र रोग

1. अर्क मूल का छाल 1 ग्राम कूटकर 20 ग्राम गुलाब जल में 5 मिनट तक रखकर छान लें। बूंद-बूंद आंखों में डालने से (3 या 5 बूंद से अधिक न डालें) नेत्र की लाली, भारीपन, दर्द कीच की अधिककता और खुजली दूर हो जाती है।
2. अर्कमूल की छाल को जलाकर कोयला कर लें और इसे थोड़े पानी में घिसकर नेत्रों के चारों और तथा पलकों पर धीरे-धीरे मलते हुये लेप करे तो लाली खुजली पलकों की सूजन आदि मिटती है।
3. आंख दुखनी आने पर, यदि बाई आंख हो और उसमें कड़क दर्द व वेदना हो तो दाहिने पैर के नाखूनों को यदि दाई आंख आई हो तो बांये पैर के नाखूनों को आक के दूध से तर कर दे-सावधानी-आंख में दूध नहीं लगना चाहिये, नहीं तो भयंकर परिणाम होगा। यह एक चमत्कारिक प्रयोग होगा।
फूला जाला :- आक के दूध में पुरानी रूई को 3 बार तर कर सुखाले, फिर गाय के घी या मीठे तैल में तर कर बड़ी सी बती बनाकर जला ले। बत्ती जल कर सफेद नहीं होनी चाहिये इसे थोड़ी मात्रा में सलाई से रात्रि के समय आंखों में लगाने से 2-3 दिन में लाभ होना प्रारम्भ होता है।
मोतिया बिन्द:- आक के दूध में पुरानी ईट का महीन चूर्ण 10 ग्राम तर कर सुखा लें, फिर उसमें लौंग 6 नग मिला, खरल में चावल भर नासिका द्वारा प्रतिदिन प्रातः नस्य लेने से शीघ्र लाभ होता है। यह प्रयोग सर्दी-जुकाम में भी लाभ करता है।

मिर्गी

1. सफेद आक के फूल 1 भाग और पुराना गुड़ तीन भाग प्रथम फूलों को पीसकर, फिर गुड़ के साथ खूब खरल करें। चने जैसी गोलियाँ बनालें, प्रातः सायं 1 या 2 गोली जल के साथ सेवन करें।
2. आक के ताजे फूल और काली मिर्च एकत्र महीन पीस 300-300 मिलीग्राम की गोलियाँ बना रखे और दिन में 3-4 बार सेवन करावें।
3. अर्क दूध में थोड़ी शक्कर या मिश्री खरल कर रखें। मात्रा 125 मिलीग्राम प्रतिदिन प्रातः 10 ग्राम गर्म दूध के साथ सेवन करें।
4. मदार के पत्ते और टहनी के रंग का ही टिड्डा इसके क्षुपपर ग्रीष्म काल में मिलता है। इस टिड्डे को शीशी में बन्दकर सुखाकर समभाग काली मिर्च मिला, महीन पीसकर, अपस्मार के रोगी को बेहोशी की हालत में इसका नस्य देने से वह होश में आ जाता है और धीरे-2 उसका रोग दूर हो जाता है।

दंतपीड़ा

1. आक के दूध में नमक मिलाकर दांत पर लगाने से दंत पीड़ा मिटती है।
2. अंगुली जितनी मोटी जड़ को आग में शकरकन्दी की तरह भूनकर उसका दातुन करने से दन्त रोग व दन्तपीड़ा में तुरन्त लाभ पहुंचता है। कूची वाले भाग को काटकर पुनः उसका अगला भाग प्रयोग कर सकते हैं।

दंत निष्कासन

1. हिलते हुये दांत पर आक का दूध लगाकर उसे सरलता से निकाला जा सकता है।
2. आक के 8-10 पत्तों को 10 ग्राम काली मिर्च के साथ पीसकर उसमें थोड़ी हल्दी व सेंधानमक मिलाकर मंजन करने से दांत मजबूत रहते हैं।
वमन :- अर्कमूल की छाल को समभाग अदरक के रस में भली प्रकार खरल कर 125 मिलीग्राम की गोलियाँ बनाकर धूप में सुखाकर रखलें। मधु के साथ सेवन कराने से किसी भी प्रकार का वमन 1-2 गोली के सेवन से बन्द हो जायेगा। प्रवाहिका, शूल, मरोड़ औरि विसूचिका में इसे जल के साथ देते हैं।

आधाशीशी

1. जंगली कंडो की राख को आक के दूध में तर कर के छाया में सुखा लेना चाहिये। इसमें से 125 मिलीग्राम सुंघाने से छीकें आकर सिर का दर्द, आधा शीशी, जुकाम, बेहोशी इत्यादि रोग में लाभ मिलता है। गर्भवती स्त्री और बालक इसका प्रयोग न करें।
2. पीले पड़े हुए आक के 1-2 पत्तों के रस का नस्य लेने से आधा शीशी में लाभ होता है, किन्तु लगती बहुत है, अतः सावधानी से प्रयोग करें।
3. आक की छाया शुष्क की हुई मूलत्वक के 10 ग्राम चूर्ण में सात इलायची तथा कपूर और पिपरमेंट 500-500 मिलीग्राम मिलाकर और खूब खरल कर शीशी में भर कर रखलें, इसमें सूंघने से छीके आकर व कफस्राव होकर आधा शीशी आदि सिर दर्द में लाभ होता है। मस्तक का भारीपन दूर होता है।
4. अनार की 40 ग्राम खूब महीन पिसी हुई छाल को आक के दूध में गूंथ में कर रोटी की तरह नरम आंच से पकालें, फिर से सुखाकर बहुत महीन पिसी हुई छाल को आक के दूध में गूंथ कर रोटी की तरह नरम आंच से पकालें, फिर इसे सुखाकर बहुत महीन पीसकर, जटामांसी, छरीला, 3-3 ग्राम, इलायची और कायफल डेढ़-डेढ़ ग्राम मिलाकर नसवार बनालें। इसकी नस्य से कुछ देर बाद छीकें आकर दिमागी नजला दूर होता है। तथा बेहोश रोगी को होश में लाने में सहयोग मिलता है।
5. पुरानी पक्की ईंट को पीसकर खूब महीन कर आक के दूध में तर कर सुखाकर और तौलकर प्रति 10 ग्राम में सात लवंग बारीक पीसकर मिलादें इसमें से 125 मिलीग्राम या 250 मिलीग्राम की मात्रा में सुंघाने से मस्तक पीड़ा, सूर्यावर्त, प्रतिश्याय, पीनस और मोतिया बिन्द में लाभ होता है।

श्वास खांसी इत्यादि

1. आक पुष्प की लौंग 50 ग्राम और मिर्च 6 ग्राम दोनों को एकत्रकर खूब महीन पीस मटर जैसी गोलियाँ बनालें। प्रातः 1 या दो गोली गर्म पानी के साथ सेवन करने से श्वास वेग रूक जाता है।
2. आक की जड़ के छिलका को आक के दूध में भिगोकर शुष्क कर महीन चूर्ण कर लें, 10 ग्राम चूर्ण में 25 ग्राम त्रिकुटा चूर्ण श्रृंगभस्म 5 ग्राम, गोदंती 10 ग्राम मिलाकर लगभग एक ग्राम प्रातः-सायं मधु के साथ लेने से कफ भड़ककर पुरातन श्वास रोग में भी लाभ होता है।
3. आक के पत्तों पर जो सफेद क्षार सा छाया रहता है, उसे 5 ग्राम से 10 ग्राम तक गुड़ में लपेटकर गोली बनाकर खाने से कफ छूटकर कास श्वास में लाभ होता है।
4. पत्रों पर छाई सफेदी को इकट्ठा कर बाजरे जैसी गोलियाँ बनाकर 1-1 गोली प्रातः सायं खाकर ऊपर से पान खाने से 2-4 दिन में श्वास रोग में लाभ होता है। पुरानी खांसी भी मिट जाती है।
5. पुराने से पुराने आक की जड़ को छाया शुष्क करके, निर्वात स्थान में जलाकर राख कर लें, इसमें से कोयले अलग कर दें। 1-2 ग्राम राख को शहद या पान में रखकर खाने से कास श्वास में लाभ होता है।
6. आक की कोमल शाखा और फूलो को पीस कर 2-3 ग्राम की मात्रा में घी में सेंक लें। फिर इसमें गुड़ मिला, पाक बना नित्य प्रातः सेवन करने से पुरानी खांसी जिसमें हरा पीला दुर्गन्ध युक्त चिपचिपा कफ निकलता हो, शीघ्र दूर होता है।
7. अर्क पुष्पों की लौंग निकालकर उसमें समभाग सैंधा नमक और पीपल मिला खूब महीन पीसकर मटर जैसी गोलियाँ बनाकर दो से चार गोली बड़ों और 1-2 गोली बच्चों को गौदुग्ध के साथ देने से बच्चों की खांसी दूर होती है।
8. अर्क मूल छाल के 250 मिलीग्राम महीन चूर्ण में, 250 मिलीग्राम शुंठी चूर्ण मिला 3 ग्राम शहद के साथ सेवन करें कफ युक्त खांसी और श्वास में उपयोगी है।
9. छाया शुष्क पुष्पों के बराबर त्रिकुट (सौंठ, पीपल, काली मिर्च) और जवाखार एकत्र कर अदरक के रस में खरल कर मटर जैसी गोलियाँ बना छाया में सुखाकर रख लें। दिन रात में 2-4 गोलियाँ मुख में रख चूसते रहने से कास श्वास में परम लाभ होता है।
10. आक के दूध में चनो की डुबो कर मिट्टी के बरतन में बन्दकर उपलों की आग से भस्म कर लें। 125-125 मिलीग्राम मधु के साथ दिन में 3 बार चाटने से असाध्य खांसी में भी तुरन्त लाभ होता है।
11. आक के एक पत्ते पर जल के साथ महीन पिसा हुआ कत्था और चूना लगाकर दूसरे पत्ते पर गाय का घी चुपड़कर दोनों पत्तों को परस्पर जोड़कर ले इसी प्रकार पत्तों को तैयार कर मटकी में रखकर जलालें, कष्टदायक श्वास में अति उपयोगी है। छानकर कांच की शीशी में रख लें। 10-30 ग्राम तक घी, गेहूं की रोटी या चावल में डालकर खाने से कफ प्रकृति के पुरुषों में मैथुन शक्ति को पैदा करता है। तथा समस्त कफज व्याधियों को और आंत्रकृमि को नष्ट करता है।
12. आक के ताजे फूलों का दो किलो रस निकाल लें, इसमें आक का ही दूध 250 ग्राम और गाय का घी डेढ किलो मिलाकर मंदाग्नि पर पकावें। घृत मात्र शेष रहने पर छान कर बोतल में भर कर रख लें। इस घी को 1 से 2 ग्राम की मात्रा में गाय के 250 ग्राम पकाये हुए दूध में मिला सेवन करने से आंत्रकृमि नष्ट होकर पाचन शक्ति तथा अर्श में भी लाभ होता है। शरीर में व्याप्त किसी तरह का विष का प्रभाव हो तो इससे लाभ होता है पर यह प्रयोग कोमल प्रकृति वालों की नहीं करना चाहिए।

जलोदर

1. अर्क पत्र स्वरस 1 किलो में 20 ग्राम हल्दी चूर्ण मिला मंद अग्नि पर पका कर जब गोली बनाने लायक हो जायें तो नीचे उतारकर चने जैसी गोलियाँ बना लें, 2-2 गोली दोनों समय सौंफ कासनी आदि अर्क के साथ दे, तथा जल के स्थान पर यही अर्क पिलावे।
2. आक के ताजे हरे पत्ते 250 ग्राम और हल्दी 20 ग्राम दोनों को महीन पीस उड़द के आकार की गोलियाँ बना लें, पहले दिन ताजे जल के साथ 4 गोली, फिर दूसरे दिन 5 और 6 गोली तक बढ़ाकर घटाये यदि लाभ हो तो पुनः उसी प्रकार घटाते बढ़ाते है। अवश्य लाभ होगा, पथ्य में दूध साबूदाना व जौ का यूष देवे।
3. आक के 8-10 पत्तों को सैंधा नमक के साथ कूट मिट्टी के बरतन में बन्दकर जला कर 250 मिलीग्राम भस्म को सुबह, दोपहर, शाम छाछ के साथ सेवन करने से जलोदर मिटता है। तिल्ली आदि अंग जो पेट में बढ़ जाया करते हैं, सब अपने स्थान पर आ जाते हैं।
4. रक्त अतिसार : छाया शुष्क एवं महीन पीसकर कपड़छन करी हुई अर्कमूल की छाल, 65 मिलीग्राम ठंडे जल के साथ 50 से 125 मिलीग्राम देवें, अवश्य लाभ होगा।
अजीर्ण :- आक के निथारे हुए पत्र स्वरस में समभाग घृत कुमारी का गुदा व शक्कर मिला पकावें, शक्कर की चाशनी बन जाने पर ठंडा कर बोतल में भर लें आवश्यकतानुसार 2 ग्राम से 10 ग्राम की मात्रा में सेवन कराये यह 6 मास के बच्चें से 9-10 साल के बच्चों तक के अनेक रोगों में यह अचूक दवा है।

पांडुकामला

1. आक के 24 पत्ते लेकर, 50 ग्राम मिश्री मिलाकर खरल में घोटकर एक जीव कर लें, फिर चने जैसी गोलियाँ बना लें दिन में 3 बार व्यस्कों को दो दो गोली सेवन कराने से सात दिन में पूर्ण लाभ होता है। तेल, खटाई मिर्च आदि से परहेज रखें।
2. अर्कमूल की छाल डेढ़ ग्राम और काली मिर्च 12 नग पुननर्वा मूल 2-3 ग्राम, पानी में घोट छानकर दिन में 2 बार पिलावें गर्म और स्निग्ध वस्तुओं से परहेज रखें।
3. आक का पका पत्र 1 नग साफ पोछकर उस पर 250 मिलीग्राम चूना लगा, बारीक पीसकर चने के आकार की गोलियाँ बनावें, और दो गोली रोगी को प्रातः काल पानी से निगलवा दें-पथ्य दही चावल,।
4. आक के कोपल 1 नग, सुबह निराहार पान के पत्ते में रखकर चबा-2 कर खाने से 3-5 दिन में कामला ठीक हो जाता है।

भगन्दर आदि नाड़ी व्रर्णों पर

1. आक का 10 मिली दूध और दारुहल्दी का 2 ग्राम महीन चूर्ण, दोनों को एक साथ खरल कर बती बना व्रणों में रखने से शीघ्र लाभ होता है।
2. आक के दूध में कपास की रुई भिगोकर छाया शुष्क कर बत्ती बनाकर, सरसों के तैल में भिगोकर व्रणों पर लगाने से लाभ होता है।

हैजा

1. आक की जड़ की छाल 2 भाग और काली मिर्च 1 भाग, दोनों को कूट छानकर अदरक के रस में अथवा प्याज के रस में खरलकर चने जैसी गोलियाँ बना लें, हैजे के दिन में इनके सेवन से हैजे से बचाव होता है हैजा का आक्रमण होने पर 1-1 गोली 2-2 घंटे से देने से लाभ होता है।
2. आक का बिना खिला फूल 10 ग्राम तथा भुना सुहागा, लौंग, सौंठ, पीपल और कालानमक 5-5 ग्राम इन्हें कूट पीसकर 125-125 मिलीग्राम की गोलियाँ बना लें और थोड़ी-2 देर में 1-1 गोली सेवन करावें। विशेष अवस्था में 4-4 गोली एक साथ देवें।
3. आक का फूल 10 ग्राम, भुना सुहागा, 4 ग्राम, काली मिर्च 6 ग्राम, इनको ग्वारपाठा के गूदे में खरलकर चने जैसी गोलियाँ बना लें, 1-1 गोली अर्क गुलाब से देवें।
4. आक के फूलों की लौंग और काली मिर्च 10-10 ग्राम और शुद्ध हींग 6 ग्राम इन्हें अदरक के रस की 10 भावनायें देकर उड़द जैसी गोलियाँ बना रखें। प्रत्येक उल्टी दस्त के बाद 1-1 गोली अदरक, पोदीना या प्याज के रस के साथ सेवन कराने से तत्काल लाभ होता है।
5. आक के पीले पत्ते जो झड़कर स्वयं नीचे गिर गये हो, 5 नग लेकर आग में जला दो। जब ये जलकर कोयला हो जाये तो कलईदार बरतन में आधा किलो पानी में इन्हें बुझा दें, यह पानी रोगी को थोड़ा-2 करके, जल के स्थान पर पिलावे।

बवासीर

1. आक के कोमल पत्रों के समभाग पांचों नमक लेकर, उसमें सबके वजन से चौथाई तिल का तैल और इतना ही नींबू रस मिला पात्र के मुख को कपड़ मिट्टी से बन्दकर आग पर चढ़ा दें। जब पत्र जल जाये तो सब चीजों को निकाल पीस कर रख लें, 500 मिलीग्राम से 3 ग्राम तक आवश्यकतानुसार गर्म जल, काँजी, छाछ या मद्य के साथ सेवन कराने से बादी बवासीर नष्ट होता है।
2. तीन बूंद आक के दूध को राई पर डालकर उसपर थोड़ा कूटा हुआ जवाखार बुरक कर बताशे में रखकर निगलने से बवासीर बहुत जल्दी नष्ट हो जाती है।
3. हल्दी चूर्ण को आक के दूध में सात बार भिगोकर सुखा लें, फिर अर्क दुग्ध द्वारा ही उसकी लम्बी-लम्बी गोलियाँ बना छाया में शुष्क कर रखें। प्रातः सायं शौच कर्म के बाद थूक में या जल में घिसकर मस्सो पर लेप करने से कुछ ही दिनों में वह सूखकर गिर जाते है।
4. शौच जाने के बाद आक के दो चार ताजे पत्ते तोड़ कर गुदापर इस प्रकार रगड़े कि मस्सो पर दूध ना लगे केवल सफेदी ही लगे। इससे मस्सों में लाभ होता है।

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