महर्षि दयानंद का वैराग्य
पिछले देढसौ सालों में सनातन हिन्दु धर्म व जाति में और उसके द्वारा समस्त संसार में प्रेरणा व प्रकाश प्रदान करनेवाले और नवजीवन की लहर पैदा करनेवाले दो प्रतापी महापुरुष हो गये । दोनों ज्योतिर्धर थे । दोनों ने जनकल्याण का कार्य किया । दोनों परम मेधावी, त्यागी, बैरागी और राष्ट्रप्रेमी थे । एक का नाम था वेदांत केसरी, रामकृष्ण मिशन के प्रणेता स्वामी विवेकानंद और दूसरे थे आर्यसमाज के संस्थापक, आर्षदृष्टा, महर्षि दयानंद ।
महर्षि दयानंद जब महर्षि के रूप में ख्यात नहीं हुए थे और अज्ञात परिव्राजक के रूप में भारत की यात्रा कर रहे थे तब घुमते-घुमते हिमालय के सुप्रसिद्ध स्थल उखीमठ में आ पहुँचे।
कुछ समय उन्होंने वहाँ शांति से गुजारा था । उस वक्त उनकी उम्र छोटी थी पर योग्यता बडी थी । उनमें वैराग्य व सत्य की लहरें तरंगित हो रही थी ।
उखीमठ के महंत पर इनका सिक्का जम गया । उन्होंने दयानंदजी को अपना उत्तराधिकारी बनाने का निश्चय कर लिया । एक बार उनके समक्ष इसका प्रस्ताव भी पेश किया और हमेशा के लिए उखीमठ में ही रहकर वहाँ की गद्दी स्वीकारने के लिए आग्रह किया ।
दयानंद के जीवन का यह एक बडा प्रलोभन था । उखीमठ जैसे सुंदर व समृद्ध स्थल के महंत होने की महत्ता और दूसरी भोग-वैभव-युक्त सुखी जीवन की संभावना । परंतु त्याग, संयम और वैराग्य की प्रबल भावनावाले, भावी महर्षि होने के लिए ही अवतीर्ण, दयानंदजी को वह पद तनिक भी चलायमान न कर सका । वे अडिग रहे और बोले, ‘यह छोटा-सा मठ अपनी समस्त संपत्ति तथा समृद्धि के साथ मुझे मेरे ध्येय से च्युत नहीं कर सकता । यह पद, प्रतिष्ठा और संपत्ति मेरे मन को मोहित नहीं कर सकती । मैं सुख, संपत्ति और सत्ता में बंधने के लिए नहीं अपितु बंधे हुओं को छुड़ाने के लिए आया हूँ ।’
और यह कह वे उस मठ के बाहर निकल पडे । महंत उन्हें देखते रह गये ।
ऐसा उत्कृष्ट और उत्कट था महर्षि दयानंद का वैराग्य । इसी वैराग्य, त्याग और सत्य से प्रेरित होकर उन्होंने भविष्य में जो महान कार्य किया यह सर्वविदित है । इसी कारण वे अमर हो गये ।
ध्येय की सतत स्मृति और निष्ठा मनुष्य को सदा जाग्रत बनाये रखती है और प्रलोभनों से गुजरकर आगे बढने की क्षमता प्रदान करती है । दयानंद ने अपने जीवन के द्वारा यह करके दिखाया ।
- श्री योगेश्वरजी
jay aarya jay aaryavarta ओ३म् कृण्वन्तो विश्वमार्यम्
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