महर्षि दयानंद | Maharishi Dayanand


महर्षि दयानंद का जन्म गुजरात के एक औदिच्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था | पिताजी परम शिव के भक्त थे | संभवतः वेद के लिए भी श्रद्धा के भाव रखते थे | स्वामीजी के चाचा विद्वान थे (जिसकी मृत्यु के कारण युवा मूलशंकर के मन में वैराग्य का उदय हुआ) | वे भी वेद भक्त रहे होंगे | अतः दयानंद जी को वेद का संपर्क तो बचपन से ही रहा | शुक्ल यजुर्वेद पूरा अपने घर पर ही कंठस्थ कर लिया था उन्होंने | उस काल में वेद के अर्थों को जानने-जनाने वाले लोग तो उसे अपने गांव में नहीं मिले होंगे | गृहत्याग के बाद सायला चले गये थे | वहां लाला भगत जी थे, मगर वेद को तो वह भी जानते नहीं थे | आगे चलकर नर्मदा के तट पर चाणोद-करनाली आदि स्थान पर उन्हें कई अन्य साधु-संन्यासी लोग मिले, जो प्रायः वेदांती थे, "अहम् ब्रह्मास्मि" वाले थे, वेद से उन लोगों को क्या लगाव हो सकता था ? वह यहाँ मूलशंकर से "दयानंद" तो बन गये मगर वेदों के अध्ययन की ओर प्रवृत्त कराने वाला कोई महात्मा उन्हें नहीं मिला | इसी प्रकार सच्चे गुरु और महा योगी की शोध में दयानंद के लगभग पंद्रह वर्ष अनुसंधान किया | सदभाग्य से अंत में मथुरा में प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द जी महाराज मिल गये | अति वृद्ध मगर वैदिक व्याकरण के सूर्य ! दयानंद ने उनके चरणों में बैठकर सश्रद्ध ढाई-तीन वर्ष पर्यंत अष्टाध्यायी, महाभाष्य आदि का तलस्पर्शी अध्ययन किया, और इस विद्या में तृप्त हो गये | गुरुजी ने अपने इस मेधावी शिष्य को वेद-मंदिर में प्रवेश करने योग्य बना ही दिया | और वेदालोक करने का और पाखण्ड खंडन करने का वचन देकर दयानंद अपने मिशन के मार्ग पर निकल पड़े | आगरा में दीर्घ वास कर अपनी कार्य शैली एवं निष्कर्षों को क्रियान्वित करने की योजना बनाई और वेदों पर पर्याप्य चिंतन मनन किया | वेदों की यथार्थ स्थिति पर वे निरंतर अन्वेषण करते रहे | वेद-विरुद्ध किसी भी बात को मानने से इनकार कर दिया और वेदों की श्रेष्ठता और सर्वोपरिता स्थापित करने का उन्होंने देशव्यापी अभियान चलाया | व्यापक देशाटन किया, शास्त्रार्थ किये, प्रवचन-व्याख्यान किये, ग्रन्थ लिखे, पत्राचार किया, शंका-समाधान किया, पाठशालाए आरम्भ की, आर्य समाज स्थापित किया, परोपकारिणी सभा गठित की | जो कुछ उनसे हो सकता था, वह सब किया - वेदों का मान बढाने के लिए, वेदों के सत्यार्थ को फैलाने के लिए | वेद-भाष्य करना उन्हें उचित लगा, क्योंकि उस काल में वेदों के सच्चे अर्थ को सुगमता से जानने के साधन नगण्य थे | वे चाहते थे कि प्रत्येक मनुष्य को - चाहे वह किसी भी वर्ण या आश्रम का हो, महिला हो या पुरुष हो, भारतीय हो या अभारतीय, युवा हो या परिपक्व या वृद्ध हो, किसान हो या विद्वान हो - सभी को वेदामृत का पान कर अपने मानव जीवन को सार्थक - सफल करना ही चाहिए | वेदों को जानने से मनुष्य को अपने जीवन का सही लक्ष्य पता चलता है और परमात्मा, जीवात्मा एवं संसार का यथार्थ ज्ञान होने से अपने जीवन को सुखी, प्रसन्न रख सकता है और अनेक प्रकार के दु:खों से पृथक रहकर अपने जीवन में कृतकृत्यता का वास्तविक अनुभव कर सकता है | यही मंगल कामना से अनुप्राणित होकर महर्षि जी ने वेदों का भाष्य किया | उन्होंने अपने आप को कहीं पर भी सर्वज्ञ नहीं माना है | वे सत्य के अनन्य गवेषक और पुजारी थे | उनके वेद भाष्यों का आश्रय लेकर कोई भी ईमानदार व्यक्ति सत्य को उत्तमता से जान सकता है और विश्व को सत्य ज्ञान से आलोकित कर सकता है |
दयानंद जी की दृष्टि में —

वेद परमात्मा-प्रदत्त ज्ञान होने से नित्य है | जैसे परमात्मा नित्य है, वैसे उसका ज्ञान भी नित्य है |
वेद का प्रादुर्भाव मनुष्य के प्रादुर्भाव के साथ ही हुआ | प्रथम अमैथुनी मानव सृष्टि में कई मनुष्य (स्त्री और पुरुष) ईश्वर ने पैदा किये - वहां जहां आज का तिब्बत है, उस प्रदेश में | उन प्रथम मानव समुदाय में से चार अति श्रेष्ठ मनुष्यों के अन्तःकरण में ईश्वर ने एक-एक वेद का संचार किया, ज्ञान दिया | ध्यान में रखें - ज्ञान दिया, पोथी नहीं | वेद का मूल स्वरूप ज्ञान है, पुस्तक का रूप बाद में मनुष्यों ने दिया | ईश्वर ज्ञान दाता है, पुस्तक-दाता नहीं |
वेद समस्त मानव समाज के लिए है | सब मनुष्यों का वेद पर समान अधिकार है |
वेद में मुख्य विषय ईश्वर या मोक्ष प्राप्ति है | अन्य विषय गौण है |
वेद में समस्त विद्याओं का बीज रूप में - सूत्रात्मक वर्णन है | मनुष्यों को अपनी बुद्धि का प्रयोग कर वेदों के सूत्रात्मक ज्ञान का आगे आगे निरंतर संवर्धन करते रहना चाहिए | इसके लिए ईश्वर के द्वारा उत्पन्न जगत का, उसमें सक्रिय नियमों का सूक्ष्म अवलोकन करना आवश्यक है |
वेद यथार्थ दर्शन के पोषक हैं | जगत को यथार्थ माना गया है - स्वप्नवत मिथ्या नहीं |
वेदों में समन्वय है - भौतिक और अध्यात्म का, शरीर और आत्मा का, आत्मा और परमात्मा का, भोग और योग का, संसार और परमार्थ का |
वेद सरल है - अगर उसे ठीक से, बुद्धिमता से लिया जाय तो |
केवल वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है | सत्य-असत्य का उसी के आधार पर विवेक किया जाना चाहिए |
वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्मं है |


महर्षि दयानंद की वेद भाष्य को देन

आधुनिक युग में महर्षि दयानंद का नाम समाज सुधारको के साथ साथ वेदों के भाष्यकार के रूप में भी जाना जाता हैं. महर्षि दयानंद ने यजुर्वेद का संपूर्ण एवं ऋग्वेद का सप्त मंडल तक भाष्य किया था जिसे वे अकाल मृत्यु के कारण पूर्ण नहीं कर पाए थे. कुछ जिज्ञासुओं का कहना हैं की जब पहले से ही सायण,महीधर आदि के भाष्य उपलब्ध थे तो महर्षि दयानंद को नवीन भाष्य की क्या आवश्यकता पड़ी अथवा यह भी कह सकते हैं की महर्षि दयानंद के वेद भाष्य में ऐसा क्या नवीन था.

महर्षि दयानंद के भाष्य से पहले वेदों के विषय में जनमानस की धारणाओं कुछ इस प्रकार थी-

१. वेदों में अनेक ईश्वरों की उपासना का विधान हैं क्योंकि वेदों में अग्नि, इन्द्र, रूद्र,पितर, अश्विनौ, अदिति , मरुत आदि अनेको देवों का वर्णन हैं.

२. वेदों में मांसाहार एवं हवन में पशु बलि जैसे अश्वमेध में अश्व की, अजमेध में अज की , नरमेध में नर बलि का विधान हैं जिससे वेद मात्र बोझिल कर्मकांड की पुस्तक प्रतीत होती हैं

महर्षि दयानंद के वेद भाष्य का प्रयोजन भी यही था की चारो और आर्यव्रत में फैले अंधकार का मुख्य कारण वेदों के सही अर्थ का प्रकाश नहीं होना हैं इसलिए उन्होंने वेद का नवीन भाष्य करने का निश्चय किया. सायण ,महीधर आदि के भ्रामक भाष्यों को पढ़ कर विदेशी भाष्यकारों जैसे मोक्षमूलर, ग्रिफ्फिथ, विल्सन आदि भी वेदों का सही अर्थ न जान सके और पूरा विश्व वेदों के ज्ञान के प्रकाश से वंचित रह गया. महर्षि दयानंद ने वेदों का नवीन भाष्य कर पूरे विश्व में क्रांति का किस प्रकार प्रचार किया पूरे लेख को पड़ कर हम जान जायेंगे.

१. वेदों में अनेक ईश्वरों की उपासना का विधान हैं क्योंकि वेदों में अग्नि, इन्द्र, रूद्र,पितर, अश्विनौ, अदिति , मरुत आदि अनेको देवों का वर्णन हैं.

वेदों में अग्नि, वायु, इन्द्र, अश्विनो, मित्र, वरुण, अर्यमा, रूद्र, सविता, अदिति, सरस्वती, पृथ्वी आदि देवताओ का वर्णन आता हैं. उवट, सायण, महीधर आदि भाष्यकारों ने इन्हें अलग स्वतन्त्र देव स्वीकार किया हैं जिससे वेदों में बहुदेवतावाद प्रतीत होता हैं . यज्ञों में आवाहन करने पर ये देवता प्रसन्न होकर यजमान को पुत्र, पोत्र, धन आदि प्रदान करते हैं. महर्षि दयानंद ने कहाँ की वेदों के विभिन्न देवता एक ही परमेश्वर के गुण- कर्म बोधक विभिन्न नाम हैं जैसे अग्नि के अग्रणी , विज्ञानस्वरुप, स्वयं प्रकाशमान, प्रकाशक परमेश्वर, विद्वान अध्यापक, उपदेशक, नायक राजा, वीर सेनापति अर्थ हैं, इन्द्र के ऐश्वर्याशाली परमेश्वर, शत्रु विदारक राजा, सेनापति, गुरु, बिजुली आदि अर्थ हैं. रूद्र का शत्रु संहारक सेनापति, ब्रहमचारी, जीवात्मा, वैद्य, वायु , प्राण आदि अर्थ हैं.अदिति के माता, जगदम्बा, राज रानी, पृथ्वी, अविनाशी आत्मा, विद्या, क्रिया, गौ आदि अर्थ हैं. महर्षि दयानंद ने जो अर्थ देव शब्दों के किये हैं वे वेदों से , निरुक्त से और ब्राह्मण आदि ग्रंथो से प्रमाणित हो जाते हैं.

वेदों में एक ईश्वर होने के प्रमाण-

१. जो एक ही सब मनुष्यों का और वसुओ का ईश्वर हैं- ऋग्वेद १.७.९

२. जो एक ही हैं और दानी मनुष्य को धन प्रदान करता हैं- ऋग्वेद १.८४.६

३. जो एक ही हैं और मनुष्यों से पुकारने योग्य हैं- ऋग्वेद ६.२२.१

४. हे परमेश्वर (इन्द्र), तू सब जनों का एक अद्वितीय स्वामी हैं , तू अकेला समस्त जगत का राजा हैं - ऋग्वेद ६.३६.४

५. हे मनुष्य, जो परमेश्वर एक ही हैं उसी की तू स्तुति कर, वह सब मनुष्यों का द्रष्टा हैं - ऋग्वेद ६.४५.१६

६. तो एक ही अपने पराकर्म से सबका इश्वर बना हुआ हैं- ऋग्वेद ८.६.४१

७. विश्व को रचने वाला एक ही देव हैं, जिसने आकाश और भूमि को जन्म दिया हैं- ऋग्वेद १०. ८१.३

८. हे दुस्तो को दंड देने वाले परमेश्वर, तुझ से अधिक उत्कृष्ट और तुझ से बड़ा संसार में कोई नहीं हैं, न ही तेरी बराबरी का अन्य कोई नहीं हैं- ऋग्वेद ४.३०.१

९. वह ईश्वर अचल हैं,एक हैं, मन से भी अधिक वेगवान हैं. यजुर्वेद ४०.४

१०. पृथ्वी आदि लोकों का धारण करने वाला ईश्वर हमें सुख देवे,जो जगत का स्वामी हैं, एक ही हैं, नमस्कार करने योग्य हैं, बहुत सुख देने वाला हैं. अथर्वेद २.२.२.

११. आओ , सब मिलकर स्तुति वचनों से इस परमात्मा की पूजा करो, जो आकाश का स्वामी हैं, एक हैं, व्यापक हैं और हम मनुष्यों का अतिथि हैं. अथर्वेद ६.२१.१

१२. वह परमेश्वर एक हैं, एक हैं , एक ही हैं. उसके मुकाबले में कोई दूसरा , तीसरा, चौथा परमेश्वर नहीं हैं, पांचवां, छठा , सातवाँ नहीं हैं, आठवां, नौवां, दसवां नहीं हैं. वही एक परमेश्वर चेतन- अचेतन सबको देख रहा हैं. अथर्वेद १६.४.१६-२०

इस प्रकार वेदों में दिए गए मंत्रो से यह सिद्ध होता हैं की परमेश्वर एक हैं. अब एक समस्या उत्पन्न होती हैं. एक और तो वेदों में मित्र, वरुण, अग्नि , इन्द्र आदि नाना देवों की सत्ता का वर्णन हैं दूसरी और वेदों में एक ही ईश्वर का वर्णन हैं तो इस परस्पर विरोधी बातो का समन्वय कैसे करे. एक उदाहरण लेते हैं देश के राजा का नाम प्रधानमंत्री होता हैं, प्रान्त के राजा का नाम मुख्यमंत्री होता हैं. जिले के राजा का नाम कमिश्नर होता हैं, पंचायत के राजा का नाम सरपंच होता हैं. अगर कोई यह कहे की भारत का एक राजा हैं तो वह भी ठीक हैं और कोई यह कहे भारत में अनेक राजा हैं तो वह भी ठीक हैं. यहीं बात वेदों के विषय में भी हैं. सबसे बड़ा देवता एक परम ब्रह्मा ईश्वर हैं बाकि सब देवता उसके नीचे काम करने वाले हैं. परमेश्वर और बाकि देवों में किस प्रकार का सम्बन्ध हैं यह इस मंत्र से सिद्ध होता हैं. जैसे वृक्ष के तने के आश्रित सब शाखाएं होती हैं, वैसे ही उस परम देव के आश्रय में अन्य सब देव रहते हैं.(अथर्वेद १०.७.३८)

वेदों में एक ईश्वर के विभिन्न नाम होने की साक्षी भी दी गयी हैं जैसे-

१. परमेश्वर एक ही हैं ज्ञानी लोग उसे विभिन्न नामो से पुकारते हैं , उसे इन्द्र कहते हैं, मित्र कहते हैं, वरुण कहते हैं, अग्नि कहते हैं, और वही दिव्या सुपर्ण और गरुत्मान भी हैं, उसे ही वे यम और मातरिश्वा भी कहते हैं.(ऋग्वेद १.१६४.४६)

२. एक होते हुए भी उस सुपर्ण परमेश्वर को ज्ञानी कविजन बहुत नामो से कल्पित कर लेते हैं (ऋग्वेद १०.११४.५)

३. यहीं भाव ऋग्वेद ३.२६.७,ऋग्वेद २.१.३-७,ऋग्वेद १०.८२.३, यजुर्वेद ३२.१, अथर्वेद १३.४ में भी कहाँ गया हैं.

जिस प्रकार बाईबिल में ईश्वर को god, almighty,lord आदि अनेको नाम से पुकारा गया हैं उसी प्रकार वेदों में ईश्वर को भी विभिन्न नाम से पुकारा गया हैं. इस प्रकार यह सिद्ध होता हैं की वेदों में एक ईश्वर का वर्णन हैं इसलिए जो लोग अंध विश्वास में आकर विभिन्न देवी देवताओ की उपासना में लगे हुए हैं वे वेदों में वर्णित एक ईश्वर के यथार्थ को समझे.

वेदों में मांसाहार एवं हवन में पशु बलि जैसे अश्वमेध में अश्व की, अजमेध में अज की , नरमेध में नर बलि का विधान हैं जिससे वेद मात्र बोझिल कर्मकांड की पुस्तक प्रतीत होती हैं

स्वामी दयानंद जी का वेदभाष्य यूँ तो कई पहलुओं में क्रांतिकारी हैं पर इसमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली विचार मांस भक्षण ,पशुबलि, कर्मकांड आदि को लेकर जो अन्धविश्वास हमारे देश में फैला था उसका निवारण कर स्वामी जी ने साधारण जनमानस के मन में वेद के प्रति श्रद्दा भाव उत्पन्न कर दिया. सायण, महीधर आदि के वेद भाष्य में मांसाहार, हवन में पशुबलि, गाय, अश्व, बैल आदि का वध करने की अनुमति थी जिसे देख कर मोक्ष मुलर, विल्सन , ग्रिफ्फिथ आदि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों से मांसाहार का भरपूर प्रचार कर न केवल पवित्र वेदों को कलंकित किया अपितु लाखों निर्दोष प्राणियो को क़त्ल करवा कर मनुष्य जाति को पापी बना दिया. मध्य काल में हमारे देश में वाम मार्ग का प्रचार हो गया था जो मांस, मदिरा, मैथुन, मीन आदि से मोक्ष की प्राप्ति मानता था. आचार्य सायण आदि यूँ तो विद्वान थे पर वाम मार्ग से प्रभावित होने के कारण वेदों में मांस भक्षण एवं पशु बलि का विधान दर्शा बैठे. निरीह प्राणियों के इस तरह कत्लेआम एवं भोझिल कर्मकांड को देखकर ही महात्मा बुद्ध एवं महावीर ने वेदों को हिंसा से लिप्त मानकर उन्हें अमान्य घोषित कर दिया जिससे वेदों की बड़ी हानि हुई एवं अवैदिक मतों का प्रचार हुआ जिससे क्षत्रिय धर्म का नाश होने से देश को गुलामी सहनी पड़ी. इस प्रकार वेदों में मांसभक्षण के गलत प्रचार के कारण देश की कितनी हानि हुई इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता.

सर्वप्रथम तो स्वामी दयानंद ने चार वेद संहिताओ को परम प्रमाण माना. उन्होंने कहाँ की दर्शन,उपनिषद, ब्राह्मण, सूत्र, स्मृति, रामायण, महाभारत, पुराण आदि तभी मान्य हैं जब वे वेदानुकुल हैं. स्वामी दयानंद ने आवाहन किया की चारों वेदों में कहीं भी मांस भक्षण का विधान नहीं हैं, न देवताओं को मांस खिलाने का, न मनुष्यों को खिलाने का विधान हैं.

वेदों में गाय के नाम

यजुर्वेद ८.४३ में गाय को इडा (स्तुति की पात्र) , रनता (रमयित्री), हव्या (उसके दूध की हवन में आहुति दिए जाने से ), काम्या (चाहने योग्य होने से) , चंद्रा (अह्ह्यादायानि होने से ) , ज्योति (मन आदि को ज्योति प्रदान करने से ), अदिति (अखंडनिय होने से) , सरस्वती (दुग्ध्वती होने से ) , मही (महिमा शालिनी होने से), विश्रुती (विविध रूपों में श्रुत होने से) और अघन्या (न मारी जाने योग्य) कहा गया हैं.

इन नामों से यह स्पष्ट सिद्ध होता हैं की वेदों में गाय को सम्मान की दृष्टि से देखा गया हैं क्यूंकि वो कल्याणकारी हैं.

गाय पूज्य हैं

अथर्ववेद १२.४.६-८ में लिखा हैं जो गाय के कान भी खरोंचता हैं, वह देवों की दृष्टी में अपराधी सिद्ध होता हैं. जो दाग कर निशान डालना चाहता हैं, उसका धन क्षीण हो जाता हैं. यदि किसी भोग के लिए इसके बाल काटता हैं, तो उसके किशोर मर जाते हैं.

अथर्ववेद १३.१.५६ में कहाँ हैं जो गाय को पैर से ठोकर मरता हैं उसका मैं मूलोछेद कर देता हूँ.

गाय, बैल आदि सब अवध्य हैं

ऋगवेद ८.१०१.१५ - मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूँ की तू बेचारी बेकसूर गाय की हत्या मत कर, वह अदिति हैं अर्थात काटने- चीरने योग्य नहीं हैं.

ऋगवेद ८.१०१.१६ - मनुष्य अल्पबुद्धि होकर गाय को मारे कांटे नहीं.

अथर्ववेद १०.१.२९ - तू हमारे गाय, घोरे और पुरुष को मत मार.

अथर्ववेद १२.४.३८ -जो (वृद्ध) गाय को घर में पकाता हैं उसके पुत्र मर जाते हैं.

अथर्ववेद ४.११.३- जो बैलो को नहीं खाता वह कस्त में नहीं पड़ता हैं

ऋगवेद ६.२८.४ - गोए वधालय में न जाये

अथर्ववेद ८.३.२४ - जो गोहत्या करके गाय के दूध से लोगो को वंचित करे , तलवार से उसका सर काट दो

यजुर्वेद १३.४३ - गाय का वध मत कर , जो अखंडनिय हैं

अथर्ववेद ७.५.५ - वे लोग मूढ़ हैं जो कुत्ते से या गाय के अंगों से यज्ञ करते हैं

यजुर्वेद ३०.१८- गोहत्यारे को प्राण दंड दो


 Courtsey -aryasamaj-jamnagar
by divyang pandya

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